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________________ EAR 212211mmpwr.Pramarimmamtarrernm-monymmetronouncourna N १६८ सहजानन्दशास्त्रमालायां कतर्थकमेव द्रव्यं न द्रव्यातरम् । यथैव चोत्पद्यमानं पाण्डुभावेन, व्ययमानं हरितभावनावतिष्ठः मानं सहकारफलत्वेनोत्यादययप्रौव्यायकवस्तुपर्याय द्वारेण सहकारफले तथैवोत्पद्य मानमुत्तरा बस्थाव स्थित गुरणेन, व्ययमान पूर्वावस्थावस्थितगोतावतिष्ठपानं द्रध्यत्वगुणेनोत्पादव्ययध्रौव्याः ।। ध्ये कद्रव्यपर्यायद्वारेण द्रव्यं भवति ।। १०४ ॥ सदसिट रादवशिष्टं-प्रथगा एवा० । गुणदों गुणत:-पंचम्पर्धे अव्यव । गुणंतरं गुणान्तर--अव्यय क्रियावि शेषण । तन्हा तस्मात्-पंचमी एक० । गुग्यज्जाया गुणपर्याया:-प्रश्रमा बहु० । मणिया भणिता:-प्रथमा : बहु० वृदन्त किया। निरुक्ति-गुणयनं गुणः, सु अयनं स्वयं । समास-सता अविशिग्टं सदवशिष्ट) गुणाश्च पर्यायाश्चेति गुणपर्यायाः ।। १०४ ।। के साथ एक ही सत्तारूपसे रहता हुअा वही द्रव्य है अन्य द्रव्य नहीं है । (३) विवात मुणपर्याय यद्यपि कर्मविपाकोषाधिका निमित्त पाकर ही होते हैं तथापि निमित्त व उपादान दोनों में नहीं होते, किन्तु उपादान में अकेले में ही अकेलेके परिणमनसे होते हैं। (४) पूर्वावस्थामें अवस्थित गुरासे नष्ट, उत्तराबस्वामें अवस्थित गुणसे उत्पन्न व द्रव्यल्ब गुणसे एकरूप रहने । वाला द्रव्य ही तो एक द्रव्यपर्यायद्वार से उत्पादव्ययत्रीय कहलाता है । सिद्धान्त---(१) एक ही समय में गुणों के उत्पादव्ययध्रौव्यरूप द्रव्य ज्ञात होता है | दृष्टि- १- सत्तासापेक्ष निस्व अशुद्ध पर्यायाथिकनय (२८) । प्रयोग- मैं आत्मा खुदकी भावना के अनुसार खुद परिणामता हूँ ऐसा जानकर निरा पद स्वभादपरिणमनके लिये निरापद अधिकार सहज ज्ञानस्वभावमें प्रात्मत्वको अनुभवना ॥ १०४ ।। अब सत्ता और , द्रव्यको अनर्थान्तरत्वमें युक्ति उपस्थित करते हैं— [यदि] .यदि [व्यं] द्रव्य [सत् न भवति ] स्वरूपसे ही सत् न हो तो [ध्रुवं असत् भवति] निश्च यसे. यह असत् होगा; [तत् कथं द्रव्यं] जो असत् होगा वह द्रव्य कैसे हो सकता है ? [वा पुनः अथवा फिर वह द्रव्य [अन्यत् भवति] सत्तासे अलग होगा। (चूंकि ये दोनों बातें नहीं हो । सकती) [तस्मात् ] इस कारण [द्रव्यं स्वयं] द्रव्य स्वयं ही [सत्ता] सत्तास्वरूप है। तात्पर्य- द्रव्य स्वयं सत्तामय है । टीकार्थ-यदि द्रव्य स्वरूपसे ही सत् न हो तो दूसरो गति यह होगी कि वह या तो असत् होगा, अथवा सत्तासे पृथक् होगा। वहीं, यदि वह असत् होगा तो, धौव्यके असंभव। होनेसे स्वयं स्थिर न होता हुआ द्रध्यका ही लोप हो जायगा, और यदि सत्तासे पृथक होगा तो सत्ताके बिना भी स्वयं रहता हुना, इतने ही मात्र प्रयोजन वाली सत्ताका लोप कर देगा। किन्तु स्वरूपसे ही सत् सत् होता हुआ ध्रौव्यके सद्भावके कारण अपने स्वरूपको AMEN*MSHALA urimadlinRayanKCHHADMAAVATumDAMOUSAMIRECAnimunARSERIENokimoniowiniiwiowinianRautavirwiminaniyaindiansionation2mmawwwwwwwwwwwwwwwin wwwwwww On50800AAp
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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