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सहजानन्दशास्त्रमालायां
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सत्तु स्वरूपप्रवृत्तानाकुलकाप्रसंचेतनत्वात् ध्यानमित्युपगीयते । प्रतः स्वभावावस्थानरूपत्वेन ध्यानमात्मनोऽनन्यत्वात् नाशुद्धत्वायेति ॥१६६॥ सम्बन्धार्थप्रक्रिया अव्यय कृदन्न । समद्विदो समवस्थितः भादा ध्याता--प्र० एक० कृदन्त सहावे स्वभाचे-सप्तमी एक० । हदि भवति-वर्तमान अन्य एकत्रिया। निरुक्ति- मन्यते अनेन इति मनः । समास-- क्ष पितः मोहकलुमः येन सः क्षपितमोहक लुषः, (विषयाद् विरक्तः विषयविरक्त: ।२९६ ॥ समव स्थान ही अनाकुलशुद्धात्मसंचेतन होनेसे परमध्यान कहलाता है । (8) स्वभावसमवस्थान रूप परमध्यान प्रात्मासे अनन्य है वह प्रात्माकी अशुद्धताके लिये नहीं है, किन्तु परमशुद्धता के लिये है।
सिद्धान्त--(१) सहज स्वभाव में उपयोग होनेके पौरुषसे स्वतंत्र सहन विलासका अनुभव होता है।
दृष्टि--- १- पुरुषकारनय, अनीश्वरनय, शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (१८३, १८६, २४ब)।
प्रयोग --- वीतराग सर्वज्ञ सहजानन्दमय होनेके लिये अविकार ज्ञान मात्र सहजात्मस्वरूपका ध्यान करना ।।१६६॥
____ अब जिनने शुद्वात्माको उपलब्ध किया है ऐसे सर्वज्ञ क्या ध्याते हैं ? यह प्रश्न प्रा. सुत्रित करते हैं निहितघमघातिकमा] नष्ट किया है धनधातिकर्मको जिसने ऐसा [प्रत्यक्ष सर्वभावतत्वज्ञः] प्रत्यक्षरूपसे सर्व पदार्थोके स्वरूपको जानने वाले तथा [ज्ञेयान्तगतः ज्ञेयों के पारको प्राप्त [असंदेहः श्रमरण:] संदेहहित श्रमण [कम् अर्थ] किस पदार्थको [ध्यायति] ध्याते हैं ?
तात्पर्य--घातियाकर्मरहित सर्वज्ञदेव किस पदार्थको ध्याते हैं, यहाँ यह एक प्रश्न
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टीकार्थ— मोहका सद्भाव होनेपर तथा ज्ञान शक्तिके प्रतिबंधक का सद्भाव होनेपर तृष्णा सहित होने के कारण पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं होनेसे और विषयको अवच्छेद पूर्वक जानना नहीं होनेसे लोक अभिलषित, जिज्ञासित और संदिग्ध पदार्थका ध्यान करता हुआ दिखाई देता है। परन्तु धनघातिकर्मका नाश किया जानेसे मोहका अभाव होनेके कारण तथा ज्ञानशक्तिके प्रति बंधकका अभाव होनेसे तृष्णा नष्ट की गई होनेसे तथा समस्त पदार्थो का स्वरूप प्रत्यक्ष है। तथा ज्ञेयोंका पार पा लिया है, इस कारण भगवान सर्वज्ञदेव अभिलाषा नहीं करते, जिज्ञासा नहीं करते, और संदेह नही करते; तब फिर (उनके) अभिलषित, जिज्ञासित और संदिग्ध पदार्थ कहाँसे हो सकता है ? जब कि ऐसा है तब फिर वे क्या ध्याते हैं ?