________________
सहजानन्दशास्त्रमालाया
.
s
........!!!SMALLAMAAwashoonomethnomedicin
प्रथाविपरीतफलकारण कारणमविपरीतं दर्शयति -----
उवरदपावो पुरिसो समभावो धम्मिगेसु सब्बेसु । गुणसमिदिदोवसेवी हवदि स भागी सुमग्गस्म ॥२५॥ पापविरत सब धार्मिक, में समभावी सुगुरणगरणाश्रित जो ।
वह ज्ञानी पात्र पुरुष, होता सन्मार्गका भागी ।। २५६ ।। उपरतपापः पुरुषः समभावो धामिकेषु सर्वेषु । मुणसमितितोपसेवी भवति स भागी सुमार्गम्य ॥ २५६ ।।
उपरतपापत्वेन सर्वमिमध्यस्थत्वेन गुणा ग्रामोपसेवित्वेन च सम्यग्दर्शनज्ञानचारिश्रयोगनामसंज्ञ-- उबरसा पुरिस समभाव धम्मिग सब्व गुणसमिदिदोषसेवि त भागि सुमग्ग । धातुसंजहव सत्तायां । प्रातिपदिक- उपरतपाप पुरुष समभाच गुणसमितितोपसेविन भागिन् धम्मिक सर्व सुमार्ग !
प्रसङ्गविवरणअनन्तरपूर्व गाथामें कारण वैपरीत्य और फलपरोत्यका व्याख्यान किया गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि कारणोपरीत्यसे फल अविपरीत सिद्ध नहीं होता।
तथ्यप्रकाश ---- (१) विषयकषाय परिणाम तो पाप ही है। (२) विषयकषाय परि. णाम बाले पुरुष भी पापरूप ही हैं। (३) पापरूप पुरुषों में अनुरागी प्राणी भी पापानुरागी होनेसे पापरूप ही होते हैं । (४) विषयकषाय वाले पुरुष अपने भक्तोंको पुण्य बन्धके लिये कारण कैसे हो सकते हैं ? नहीं हो सकते । (५) विषयकषाय वाले पुरुषोंकी भक्ति जन पुण्यके लिये भी नहीं हो सकती, फिर संसारनिस्तरणके लिये तो बात बिल्कुल ही दूर है। (६) कारणकी विपरीततासे फल अविपरीत कभी सिद्ध नहीं हो सकता।
सिद्धान्त---(१) अशुद्धताको सेवासे अशुद्धता ही वर्तती है । दृष्टि--१-- अशुद्धभावनापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४स)।
प्रयोग-मोह कषाय पापके आश्रयसे पापकी ही परिपाटी होना जानकर मोही कषायाधिक जीवोंको धर्मबुद्धिसे उपासना न करके स्वभावानुरूप परिणमने वाले व स्वभावानुरूप परिणमनके पौरुषी अात्मावोंकी आराधना व संगति करना ॥२५॥
अब अविपरीत फलका कारणभूत 'अविपरीत कारण' दिखलाते हैं— [उपरतपापः] पाप रुक गया है जिसके व [सर्वेषु धामिकेषु समभावः] जो सभी धामिर्कोके प्रति समभाववान है, और [गुरणसमितितोपसेवी] जो गुणसमुदायका सेवन करने वाला है, [सः पुरुषः] वह पुरुष [सुमार्गस्य] सुमार्गका [भागो भवति] अधिकारी होता है।
तात्पर्य-निष्पाप समभावी गुणी पुरुष सुमार्गगामी होता है ।