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________________ ४५० सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ लोकसंभाषणप्रवृत्ति सनिमित्तविभागं दर्शयति---- वेज्जावचणिमित्तं गिलाणगुरुवालवुड्ढसमग्णाग । लोगिगजणसंभासा गा णिदिदा वा सुहोवजुदा ॥२५३॥ बाल वृद्ध गुरु रोगी, श्रमणोंको खेदहरणसेवामें । लौकिकजनसंभाषण, निन्दित न शुभोपयोगीके ।।२५३॥ बैयावृत्यनिमिन कटानगुरबालवृद्धश्रमणानाम् । लौकिक जनसंभाषा न निन्दिता या भाग्युता ॥५॥ समविगतद्धात्मवृत्तीनां ग्लान गुरुवालवृद्धश्रमणानां वैयावृत्त्यनिमित्तमेव शुद्धात्मवत्ति. शून्य जनसंभाषण प्रसिद्धं न पुन रन्यनिमित्तमपि ॥२५३॥ नामसंज्ञ. देउजावाणिमित्तं गिलान गुरुबालबुद्धसमण लोगिगजणसंभामा प्रदिदा या महोवजुदा । धातुसंज्ञ- निंद निन्दायां । प्रातिपदिक- यावृत्यानिमित्तं ग्लामगुरुवालयमा लौकिक जनसभाषा न निस्दिना वा भोफ्युता । मूलधातु-निन्द निन्दामा । उभयपदविवार,... अजजाबच्चणिमित बया वृत्यानिमिन-अव्यय क्रियाविशेषणरूपे । विलाण गुरुबालबुसमणाण' नयादश्रमणानाषष्टी बहुवचन । दोगिगजणसंभासा लौकिकजनसंभाषा सुहोवजुदा शुभोपयुताना एक० । पन-- अव्यय । णिवदा निन्दिता-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रियारूपा । निरुक्ति- मृणालि पनि शक्ति धर्म इति गुरुः (+) । समास- ग्लानश्च गुरुश्च बालश्च वुरचेति ग्लानगुरुवालवतः अननगुन्यासवृद्धाश्च ते श्रमणादति नाना, लौकिकजनैः सहसंभाषा इति लौकिकवन संभाषा ।।२५३।।। की प्रवृत्ति किस निमित्तसे होती है । तथ्यप्रकाश---१- रोगी गुरु बाल वृद्ध श्रमणों की वैयावृत्ति के निमित्त शुभोपयोगी श्रमणका लौकिक जनोंसे संभाषण करना निन्दित नहीं है । २-- शुद्धात्मवृत्ति से शुन्य जन लौकिक जन कहलाते. उनसे संभाषण करना अनावश्यक है, किन्तु शुद्धात्मवृति में लगे हुए श्रमणों की सेवा के लिये आवश्यक होनेपर लौकिक जनोंसे शुभोपयोगयुक्त संभाषण करना शास्त्रों में निषिद्ध नहीं । ३- उक्त प्रयोजन के अतिरिक्त अन्य कारणों से लौकिक जनसंभाषण प्रसिद्ध हो ऐसा नहीं है, अर्थात् अन्य समय व अन्य प्रयोजनसे लौकिकजन संभाषण निषिद्ध SHAYAYAYalani सिद्धान्त-१-- वास्तवमें रोग प्रादिसे प्राक्रान्त श्रमणको देखकर शुभोपयोगी श्रमण उनके प्रति प्रतीकार करनेको इच्छारूप व योगरूप प्रवर्तते हैं । २-श्रमणों को अावश्यक देया. वृत्तिके निमित्त शुभोपयोगी श्रमण लोकिकजनोंसे संभाषण करते हैं। दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- परसंप्रदानत्व असद्भुत व्यवहार, परकर्मस्व असद्भुत व्यवहार (१३२, १३०) । pecairiesponsentarianity
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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