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________________ सहजानंदशास्त्रमालायां समस्तमहामोहमूर्धाभिषिक्तरकन्धाबारस्यात्यन्तक्षये संभूतत्वान्मोहरागद्वेषरूपाणामुपरचकानामभावाच्चतन्यविकारकारगतामनासादयन्ती नित्यमौदयिको कार्यभूतस्य बन्धस्याकारणभूततया कार्यभूतस्य मोक्षस्य कारणभूततया च क्षायिक्येव कथं हि नाम नानुमन्येत । अथानुमन्येत चेत्तहिं कर्मविपाकोऽपि न तेषां स्वभावविधाताय ।। ५ ।। रहिता तत् तत् क्षायिकी इति मता । मूलधानु... रह त्यागे, क्षि शये । उभयपदविवरण पूष्णकला पुण्य. फला: अरहका अहन्तः-१० बहु । तेलि तेषां-ठी बहः । किरिया त्रिया ओदश्या औदायको-प्र० ए०। पुणो पुन:हि ति इति-अव्यय । मोहादीहि मोहादिभिः-तृतीया बहु । बिरहिया विरहिता सा सा खाइग क्षायिकी-प्रथमा एक तम्हा तस्माल-पंचमी एक० । मद्रा भता--प्रथमा एक कदन्त त्रि अर्हन्तीनि अहंन्तः, मोहन मोहः, क्षये भवा क्षायिकी | समास --(मोहः आद्रियेषां ते मोहादयः सः ।।४।। तात्पर्य—अरहंत भगवान के प्रघातिकर्मोदयज हुई क्रियायें बन्धका कारण नहीं और वे कर्म निष्फल नष्ट हो जाते हैं। टीकार्थ-.-अरहन्त भगवान वास्तव में पुण्यरूपी कल्पवृक्षक समस्त फल भले प्रकार परिपक्व हुए हैं जिनके ऐसे ही हैं, सो उनको जो भी क्रिया है वह सब उस पुण्यके उदयके प्रभावसे उत्पन्न होनेके कारण प्रौदयिकी ही है। किन्तु ऐसी होनेपर भी वह सदा प्रौदग्रिकी क्रिया महामोह राजाको समस्त सेनाके सर्वथा क्षय होनेपर उत्पन्न हुई है इस कारण मोहरागद्वेषरूपी उपरंजकोंका अभाव होनेसे चैतन्यके विकारके कारणपनेको नहीं प्राप्त होती हुई कार्यभत बन्धकी अकारणमततासे और कार्यभत मोक्षको कारणभूततासे क्षायिकी ही क्यों न माननी चाहिये ? और जब क्षायिको ही मानी जावे तब कर्मविपाक भी उन अरहन्तोंके स्व. भावविधात के लिये नहीं होता। प्रसङ्गविवरण----अनंतर पूर्व गाथामें बताया गया था कि केवली प्रभुको विहारादि क्रिया क्रियाफलको नहीं साधती हैं अर्थात् बन्धका कारण नहीं बनती। अब इस गाथामें बतलाया गया है कि केवली भगवान की तरह सभी जीवोंके स्वभावविघातका प्रभाव नहीं है । तथ्यप्रकाश ---- (१) अरहंत भगवान पुण्यरूपी कल्पवृक्षके पुष्ट परिपक्व फल हैं । (२) अरहंत भगवानको विहारादि क्रिया अघातिया पुण्यकर्म के उदयसे होनेके कारण प्रौदयिकी है, स्वाभाविकी नहीं और विकारभावपूर्वक नहीं । (३) अरहंत भगवानकी क्रिया औदयिकी होने पर भी चूंकि वह क्रिया समस्तमोहकर्मका क्षय होनेपर हुई है अतः वहाँ उपरञ्जक मोह राग द्वेष रंच भी नहीं है । (४) जहाँ मोह राग द्वेष रंच भी नहीं है तथा विकारोंका व विकारों के निमित्तभुत कर्मप्रकृतियोंका मूलतः क्षय हो चुका है वहाँ अघातिया कर्मोदयसे क्रिया भी हो जाय तो भो क्रियाफल (बंध) नहीं है । (५) जिन अधातिया कर्मोके उदयसे वीतराग सकलपर. .................
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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