SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Mana S m प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका १३१ समुत्पादयन्ति । न खलु तृष्णामन्तरेण दुष्ट शोणित इव जलूकानां समस्तसंसारिणां विषयेषु प्रवृत्तिरवलोक्येत । नवलोक्यते च सा । ततोऽस्तु पुण्यानां तृष्णायतनत्वमाधितमेव ॥७॥ बहराचन गिजन्त क्रिया । विसयतण्हं विषयतृष्णां-द्वितीया एक । जीवाणं जीवानां देवदंताण देनामाना-पाठी बह। निरुक्ति---यूबी अनेनेति पुगवपिण्यक्ति रथात्मकतया बियणं संबध्नन्ति प्रति विषया) तृष्यते अनयेति तृष्णा ! समास....परिणामन गमुद्भवानि परि०, विरयाणां नृणा वि० ||७४।। देती है। इस कारण पुण्योंकी तृष्णायतनपना प्रदाधित हो है ।। A प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें शुभोपयोगजन्य पुण्यकर्मका दूषण स्पष्ट किया गया था। अब इस गाथामें उन पूण्य कमाँको दुःखकारणताको प्रकट किया है। । तथ्यनकाश---(१) शुभोपयोगके परिणामसे अनेक प्रकारके पुण्यकर्म बन जाते हैं। (२) व पुण्यकर्म बड़ेसे बड़े प्रारगी देवेन्द्रों तकके संसारियों के विषयतृष्णाको उत्पन्न करते हैं । (२) यदि उन. पुण्यकर्म वाले बड़े प्राणियोंके पुण्यकर्म विषयतृष्णाजनक न होते तो उनकी विषयों में प्रवृत्ति न देखी जाती । (४) पुण्योदय वाले प्राणियोंके विषयतृष्णा व विषयप्रवृत्ति देखो जाती है, अतः अबाधित सिद्ध है कि पुण्यकर्म तृष्णाके घर ही हैं। (५) वास्तव में पुण्यकर्म सुखके साधन तो क्या होंगे वे तो दुःख के बीजरूप तृष्णाके ही घर हैं । । सिद्धान्त--(१) तृष्णाका कारण है मोहोदय के साथ पुण्योदय, पुण्यबन्धका कारण या है. सभोपयोग । - दृष्टि--१- निमित्तपरम्परादृष्टि [५३५] । - प्रयोग---पुण्यकर्मको भी दुःख बोज जान कर पुण्यकर्मसे, पुण्यकर्मके फलसे व पुण्यकर्म में साधनसे उपेक्षा करके शुद्ध सहज अन्तस्तत्व की दृष्टि करना ।।७४।। अब पुण्यके दुःखबीजरूप विजय घोषित करते हैं--[पुनः] फिर [उदीर्णतृष्णा ते उदोणं है तृष्णा जिनकी ऐसे वे जीव [तृष्णाभिः दुःखिताः] तृष्णाप्रोंके द्वारा दुःखी होते हुए अपामरणे | मरण पर्यंत [विषयसौख्यानि इच्छन्ति] विषयमुखोंको चाहते हैं [च] और संतप्ता:] दुःखोंसे संतप्त होते हुए [अनुभवंति उन्हें भोगते हैं। A तात्पर्य—जिनके तृष्णा बढ़ी-चढ़ी है वे विषयचाहको दाहसे मरणपर्यन्त दुःख भोगते ११:45 ASTRA AartySARAN E टीकार्थ----जिनके तृष्णा बढ़ो-चढ़ी है ऐसे देवपर्यंत समस्त संसारी, सृरुणा दुःख का बीज होतेसे पुषयजनित तृष्णामोंके द्वारा भी दुःख बीजपना होनेसे अत्यंत दखी होते हुए मृगसमापासे जल को भांति विषयोंसे सुख चाहते हैं, और उस दुःख-संतापके वेगको न सहने ए जोकको भौति विषयोंको तब तक भोगते हैं, जब तक कि मरणको प्राप्त नहीं होते । जैसे URI
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy