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________________ २१४ ... .. .. . .. ....... MMEN सहजानंदशास्त्रमालायां कतिर्यग्मनुष्यदेवसिद्धत्वानामन्यतमेन पर्यायेण द्रव्यस्य पर्यायदुर्ललितवृत्तित्वादवश्यमेव भवि. ध्यति । स हि भूत्वा च तेन किं द्रव्यत्वभूतामन्त्रयशक्तिमुज्झति, नोज्झति । यदि नोजमति कथमन्यो नाम स्यात्, येन प्रकटितत्रिकोटिसत्ताकः स एव न स्यात् ।। ११२ ।। अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । भयीय भूत्वा--असमाप्तिकी क्रिया । वा पुणो पुनः किण बाहं कथं-अव्यय । दव्वत्तं द्रव्यत्वं-द्वितीया एका । पजहदि प्रजाति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । जहं जह-प्रथमा एक० कृदन्त । होदि भवति-वर्त अन्य एक भिन्या । निरुक्ति-G मरतीति अगर आयुषः पूर्व न. मति), द्रव्यस्य भावः द्रव्यत्वम् ।। ११२ ।। होता है । स्पष्टीकरण---जीव द्रव्य परिणमता हुआ नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्वमें से किसी एक पर्याय में अवश्य ही होगा, क्योंकि द्रव्यका पर्याय में होना अनिवार्य है। परंतु वह जीव उस पर्यायरूप होकर वया द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्तिको छोड़ता है ? नहीं छोड़ता यदि नहीं छोड़ता तो वह अन्य कैसे हो सकता है कि जिससे कालिक अस्तित्व प्रगट है . जिसके ऐसा वह जीव वही न हो ? प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें द्रव्यके सदुत्पाद व असदुत्पादमें अविरोध सिद्ध किया गया था । अब इस गाथामें सदुत्पादका द्रव्यके अनन्यपनेसे निश्चित किया गया है । तथ्यप्रकाश--(१) वास्तवमें द्रव्य सदैव सत् है, क्योंकि वह द्रव्यत्वभूत अन्न यशक्ति को कभी भी नहीं छोड़ता । (२) द्रव्यको अवस्थाके उत्पादमें भी द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति कभी नहीं हटतो, अतः प्रत्येक पर्याय में द्रव्य वहीका वही अनन्य है । (३) द्रव्यका सदुत्पाद अनन्यपनेसे ही है । (४) कुछ भी पर्याय हो क्या द्रव्य वह न रहा ? क्या अन्य हो गया ? नहीं, द्रव्य प्रतिपर्यायमें वही है। (५) द्रव्यान्वयशक्तिरूपसे जो हो सद्भावनिबद्ध उत्पाद द्रव्यसे अभिन्न है। सिद्धान्त-(१) जो भी पर्याय होती है वह अन्वित द्रव्यका विशेष है सो वह पर्याय द्रव्यसे अन्य नहीं है। __दृष्टि-१- अन्वय द्रव्याथिकनय (२७)। प्रयोग---संसार अवस्था व मुक्तिप्रवस्थामें मैं ही होता हूं वह कोई अन्य नहीं, अतः संसारावस्थासे हटकर केवल ही रहूं एतदर्थ अपनेमें केवल चतन्यस्वरूपकी उपासना करना।११२॥ अब असत्के उत्पादको अन्यत्व के द्वारा निश्चित करते हैं.-.--[ मनुजः] मनुष्य [देवः न भवति] देव नहीं है, [वा] अथवा [देवः] देव [मानुषः वा सिद्धः वा] मनुष्य या सिद्ध नहीं है; [एवं अभवन् ] सो ऐसा न होता हुआ वह [अनन्यभावं कथं लभते.] अन्यभावको कैसे प्राप्त हो सकता है ? wwwww Me : Kulkwww SANTwww wwwww
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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