SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ mea nemosmaran BookSAMAKAwam ramansames nindiansir.............. ....... ... ne वतने याकाः परमं वैश्वसमभिन्याय व्यवहिवन वादनन्तार्थविस्तृतम समस्ता बुभुत्मया, सकल शक्तिप्रतिबन्धकका सामान्यनि:शान्त तथा परिसरकाश भास्वरं स्वभावमभियान थ्यवस्थितन्त्र दिवमादिरहितम नमानार्थ पण व दाभावेन प्रत्यक्ष ज्ञानबुल भवन । नतम्रमाधिक बल मौरुवम् ॥५६॥ अनन्नाथा: बार लिग अनन्ताय नृतम् ।। .. !! पदार्थों को जाननकी इच्छाके प्रभाव के कारण ४) मला अतिको रोकने वाला कर्ममामान्य (जार में निकल जाने से (ज्ञान अत्यंत प्रकाशक वारा प्रकाशमान स्वभाव, व्यास होकर रहने से निर्मल होता हुआ यथार्थ जानने के कारण तथा (५) युगपत् ममपिन किया है तीन कालोंका अपना स्वरूप जिसने हमे लोकानको नार रहने से सबनहादिरहित हाना मा कम किये गये पदार्थ ग्रहाय वेदक प्रभावके कारणा अनाकुन्न है.। इस कारण वास्तव में वह पारमार्थिक सुन्द्र है। प्रसंगविवरण--'अनन्तरपूर्व गाथामे परोक्षद प्रत्यक्ष ज्ञानका स्वरूप बनाया गया था । अब इस माथामें इसी प्रत्यक्ष जातको पारमाथिक प्रानन्दरूप कहा गया है । तथ्यप्रकाश-- (१) स्वयं ही उत्पन्न मा ज्ञान (प्रत्यक्ष ज्ञान स्वाधीन होने से मानन्दरूप है, पर इन्द्रियादिके निमित उत्पन्न प्रा परोक्ष ज्ञान पराधीन होनसे याकुल रहता है । (२) सर्व भाभप्रदेशास जानने वाला मामला ज्ञान परिपूर्ण होना अानन्दरूप है, किन्तु अन्य हारोंके यावरस वाला ब क इन्द्रिय कारसे किञ्चित् जानने वाला ज्ञान काल रहता है । (5) सर्व अनन्त पदार्थो का जानन हार न म जान चुकने के कारण प्रानन्दरूप है, किन्तु कुछ ही पदार्थोंभे प्रवर्त सकने वाला जान अन्य पदार्थोंके जानने की इच्छा रहने के कारण प्राकुल रहता है । (४) निर्दोष अतीन्द्रिय नान सही जानने के कारण सानन्दरूप है, किन्तु सदोष इन्द्रियज्ञान यथार्धजला न होने से प्राहुल रहता है । (५) युगपत् विश्वको जानने वाला ज्ञान जिज्ञासाखेदरहित होने के कारण ग्रानन्दरूप है, किन्तु अवग्रहादि विधिले जानने वाला शान कृमकृत अर्थग्रहण के खेदो बन होनक मारला अाकुल है । (६) निराकरण प्रत्यक्ष ज्ञान अनिवारित अानन्दरूप है। सिद्धान्त-- (१) स्वभाव की निर्ममता सर्व निर्मलता है। दृष्टि-१- स्वभावगुणाव्यशुनपायष्टि [२१४] । प्रयोग ---सहज परम ग्रानन्दधे अनुभव के लिये अविनाभाना सहन परम ज्ञान के स्रोतभूत सहज मानस्वभावको उपासना करना ॥५६॥ M ARAHARI HAIsog # am ISHES- FichoidaisiATTAMATSARORAKHAND ari
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy