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________________ प्रत्रवनसार मनाङ्गी टीका १०५ समलमसम्यगवबोधेन श्रवग्रहादिसहितं क्रमकृतार्थ ग्रहखेदेन परोक्षं ज्ञानमप्यन्तमाकुलं भवति । ततो न तत् परमार्थतः सौख्यम । इदं तु पुनरनाविज्ञान सामान्यस्वभावस्योपरि महाविकशिना भिव्याप्य स्वत एवं व्यवस्थितत्वात्स्वयं जायमानमात्माधीनतया समन्तात्मप्रदेशान् परममम राजानोपयोगोभूयाभिव्याप्य व्यवस्थितत्वात्समन्तम् शेषहारापावरसेन, प्रसभं तिपीतमस्त अणतत्ववित्थड अन्नार्थविस्तृत विमलं रहियं रहित ऐकान्तिक माहि हादिभिः तृतीया बहु० । भणिदं भणितं प्र० एक० दन्न क्रिया । निरुक्ति - अनन्ताय ने अ सिद्धान्त - ( १ ) इन्द्रियज्ञान में संस्कारवशवर्ती ग्रहपज्ञ आत्माका बोध है । (२) - दिय ज्ञानमें संस्कारादिकी श्रावश्यकतासे जन्य सर्वज्ञ आत्माका बोध है। दृष्टि-- ग्रस्वभावनय [१८०] २- स्वभावनय [ १७६ ] | प्रयोग अपनेको संस्कारादिशून्य सहज ज्ञानस्वभावमात्र निरखना ॥५॥ व इसी प्रत्यक्षज्ञानको पारमार्थिक मुखरूपसे अपने पास रखते हैं अर्थात् पारमार्थिक सुखमय प्रत्यक्ष ज्ञानको अपने में रखनेकी तीव्र भावनासहित उसका स्वरूप बतलाते हैं - [स्वयं जात] अपने आप ही उत्पन्न [समंत ] ग्रात्मकि सर्व प्रदेशों में हुआ [ अनन्तार्थविस्तृतं ] ग्रनन्त पदार्थों में विस्तृत [ विमलं ] निर्दोष [तु] और [श्रवग्रहादिभिः रहितं ] ग्रहादि रहित [ज्ञानं ] ज्ञान [ ऐकान्तिकं सुखं ] ऐकान्तिक अर्थात् सर्वथा सुखरूप [ इति भणितं ] ऐसा सर्वदेव द्वारा कहा गया है । तात्पर्य- केवल ज्ञान स्वयं सहजानन्दमय हैं । निर्दोष परिपूर्ण सुख है यह निश्चित होता • टीकार्य - स्वयं उत्पन्न होनेसे, समंत होनेसे, अनन्त पदार्थों में विस्तृत होनेसे और अवग्रहादिरहित होनेसे, प्रत्यक्षज्ञान सर्वथा है क्योंकि सुखका एक मात्र अनाकूलता हो लक्षण है। चूंकि परोक्ष ज्ञान (१) परके द्वारा उत्पन्न होता हुआ पराधीनता के कारण, (२) इतर द्वारोंके ग्रावरणके कारण, (३) अन्य "पदार्थों को जानने की इच्छा के कारण ( ४ ) समल' होता हुआ मिथ्या श्रवबोधके कारण और (५) 'वाहादि सहित' होता हुआ क्रमशः होने वाले पदार्थग्रहणके खेदके कारण अत्यन्त प्राकुल हैं। इसलिये वह परमार्थसे सुख नहीं है । परन्तु यह प्रत्यक्षज्ञान ( १ ) अनादि ज्ञानसामान्यरूप स्वभावपर महाविकास से व्याप्त होकर स्वतः ही व्यवस्थित होनेसे स्वयं उत्पन्न होता हुआ स्वाधीनता के कारण ( २ ) समस्त आत्मप्रदेशों का परम प्रत्यक्ष ज्ञानोपयोग होकर व्याप करके रहने से समंत होता हुआ समस्त द्वारोंके निरावरण होनेके कारण, (३) बिल्कुल भी लिये गये समस्त वस्तुओंके ज्ञेयाकार रहनेसे अनन्त पदार्थोंमें विस्तृत होता हुआ सर्व SATTAM
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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