SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार-सप्तदशा टीका १०७ केवलस्यापि परिणामद्वारेण खेदस्य संभवादैकान्तिकसुखत्वं नास्तीति प्रत्याच जं केवलं ति गाणं तं मोक्खं परिणामं च सो चैत्र । खेदो तस्स भगदो जम्हा वादी खयं जादा ॥६०॥ केवल ज्ञान हि सुख है, है वह परिणामरूप हो तो भो । खेद न च वहां है, क्योंकि घातिकर्म नष्ट हुए ॥ ६० ॥ केवलमिति ज्ञानं तत्सीय परिणामश्च ग चैत्र । दस्तस्य न गणिती वरमात् पातीनि श्रयं नामानि ॥६ अत्र कोहि नाम खेदः कश्व परिणामः कश्च केवलमुखयतिरेकः यतः केवलकान्तिकसुखत्वं न स्यात् । खेदस्यायतनानि घातिकर्माणि न नाम केवल परिणाममाश्रम् | पातिकर्माणि हि महामोहोलादकत्वादुन्मत्तवदतस्मिंस्तद्बुद्विमाधाय परिच्छेदमर्थं प्रत्यात्मानं यतः परिणामयति, ततस्तानि तस्य प्रत्यर्थं परिणम्य परिणम्य श्राम्यतः खेदनिदानां प्रतिप द्यन्ते तदभावात हि नाम केवले खेदस्योद्भेदः । यतश्च समयावच्छिन्न सकलपदार्थ परि दण भणिद जघादि सब जाइ । तत् राख्यि परिणाम चन नामसंज्ञज केवल विभाग व सोख परिणम चतएव धातुसंज्ञ -- गण कथने जा प्रादुर्भाव । प्रातिपदिकयत् केवल इति ज्ञान एव खेद तत् न भणित यत् घाति क्षय जाय। मूलधातुभग शार्थ जी प्राइमवि । उभयपदविवरणयेव केवलं गाणं ज्ञानं तं तत् सोक्खं मौख्यं परिणम परिणामः योगः मंदो मेदः प्रथम सकता अब केवलज्ञानके भी परिणामके द्वारा खेदको सम्भवता होनेसे ऐकान्तिक सुखरूपता नहीं है' इस अभिप्रायका खंडन करते हैं--- [ यत् ] जो [ केवलं इति ज्ञानं ] 'केवल' नामका ज्ञान है [ तत् सौख्ये ] वह सुख है [ परिणामः च] परिणाम भी [सः च एवं ] बड़ी है [ वेदः न भणितः ] उसके खेद नहीं कहा गया है, [ यस्मात्] क्योंकि [धातीनि ] वानियाक राव [क्षयं जातानि ] क्षयको प्राप्त हुए हैं । तात्पर्य केवलज्ञान परिणमन तो स्वाभाविक परिणगत है वह भी नहीं टीकार्थ-यहाँ केवलज्ञानके सम्बंध में, वास्तव में खेद क्या परिणमन क्या तथा केवलज्ञान और सुखका भेद क्या, जिससे कि केवलज्ञानको ऐकान्तिक नुखपना न हो ? देखिये-चकि (१) खेदके प्रायतन प्रालिक हैं, केवल परिणमन मात्र नहीं । यातिकर्म महामोहक उत्पादक होनेसे पागलको तरह तत् तत् बुद्धि धारण करवाकर आत्माको शेयपदार्थ के प्रति परिणमन कराते हैं। इस कारण वे घातिकर्म प्रत्येक पदार्थ के प्रति परिमित हो-होकर थकने वाले आत्माके लिये खेदके कारणपने को प्राप्त होते हैं । उन घातिकमका प्रभाव होनेसे केवल
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy