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________________ ...................... १०८ हजानन्दायमानायां च्छेद्याकारवैश्वरूप्यप्रकाशनास्पयोभूतं चित्रभितिस्थानीयमनन्तस्वरूपं स्वयमेव परिणमत्केवल : मेव परिणामः ततः कुतोऽन्यः परिणामो बहारेण खेदस्यात्मलाभः । यच समस्त स्वभाव प्रतिघाताभावात्समुल्लसितनिरंकुशानन्तशक्तितया सकलं त्रैकालिक लोकालोकाकारमभिव्याप्य कूटस्यत्वेनात्यन्ततिःप्रकम्प व्यवस्थितत्वावनाकुलतां सौख्यलक्षणभूनामात्मनोऽव्यतिरिक्तां बिभ्राणं केवलमेव सौख्यम् । ततः कुः वयोव्य॑तिरेकः | अतः सर्वथा केवलं खमैकान्ति कमनुमोदनीयम् ॥६०॥ तन्मय-पुष्टी एक भगिदी भाषन दिया। जम्हा भात पंचमी एक घादी भातीनि प्र० बहु० । खयं क्षयं द्वितीया जादा जानाति प्रथमा बहूत किया । निरुक्ति--- वेब: पातयन्तीति घातला जान में खेद कहाँसे प्रगट होगा ? (२) और चूंकि लोन कालोंसे ग्रवच्छिन्न समस्त पदार्थोको याकाररूप विविधताको प्रकाशित करनेका स्थानभूत केवलज्ञान चित्रित दीवारकी भाँति, स्वयं ही अनन्त स्वरूप परिमित होता हुआ केवलज्ञान हो परिणमन है । इस कारण अन्य परि मन कहाँसे हो जिससे कि वेदको उत्पत्ति हो ? (३) और चूंकि समस्त स्वभावप्रतिघातके प्रभाव के कारण निरंकुश ग्रनन्त शक्ति उल्लमित होनेसे समस्त त्रैकालिक लोकालोकके श्रा कारमें व्याप्त होकर कूटस्थता प्रत्यं निष्कम्प रहनेसे आत्मासे अभिन्न मुख -लक्षभून अना कुलताको धारण करता हुआ केवलज्ञान ही सुख है, इस कारण केवलज्ञान और सुखका व्य तिरेक कहाँ है ? इससे 'केवलज्ञान ऐकान्तिक सुख है' यह सर्वथा प्रनुमोदन के योग्य हैं । प्रसंग विवरण -- ग्रनन्तरपूर्व गाथा में प्रत्यक्षज्ञानको पारमार्थिक प्रानन्दरूप बताया गया था । अब यदि कोई अतीन्द्रिय केवलज्ञान में यह संदेह करे कि केवलज्ञान भी तो प्रति समय होने वाला परिणमन है और जहाँ परिणामन है वहाँ खेद हैं, तो उनके इस संदेहका निराकरण इस गाथामें किया गया है । तथ्यप्रकाश -- ( १ ) द्रव्यत्व गुरणके कारण पदार्थ में परिणयन प्रतिसमय होता हो रहा है व होता ही रहेगा । (२) पदार्थ परिणामशून्य कभी रहेगा ही नहीं । ( ३ ) परमात्मपदार्थ भी शुद्ध परिणमनोंसे परिणमता ही रहेगा । ( ४ ) परिणमनमात्र वेदका कारण नहीं है । (५) खेदका कारण घातिया कर्मोंके उदयके निमित्तसे होने वाला परोन्मुख परिणमन है । ( ६ ) घातिया कर्मके उदयसे महामोहका उत्पाद होने के कारण जीव तत् में तद्बुद्धि कर लेता है अर्थात् वस्तुस्वरूपसे विपरीत निर्णय रखता है । (७) विपरीत बुद्धि वाला जीव ज्ञेय पदार्थ के अपको परिणमनेका विकल्प करते हैं । (८) ज्ञेयार्थपरिणमन बुद्धिसे यह जीव इष्टानिष्ट
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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