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________________ प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका १३६ अथ यदि सर्वसावधयोगमतीत्य चरित्रमुपस्थितोऽपि शुभोपयोगानुवृत्तिवशतया मोहा. दोनोन्मूलयामि, ततः कुतो मे शुद्धात्मलाभ इति सर्वारम्भेगोत्तिष्ठते---- वत्ता पाचारंभ समुट्टिदो वा सुहम्मि चरियम्हि । गा जहदि जदि मोहादी ण लहदि सो अप्पगं सुद्ध ॥७॥ पापारंभ छोड़कर, शुभ चरित्रमें उद्यमी भी हो। यदि न तजे मोहादिक, तो न लहें शुद्ध प्रात्माको ॥७॥ त्यक्त्वा पापारम्भ समृश्रितो वा शुभे चरित्रे । न जहति यदि मोहादीन्न लभते स आत्मकं शुद्धम् ।। ७ ।। य खलु समस्तसावधयोगप्रत्याख्यानलक्षणं परमसामायिकं नाम 'चारित्रं प्रतिज्ञायापि शुभोपयोगवृत्त्याऽटकाभिसारिकयेवाभिसार्यमाणो न मोहबाहिनीविधेयतामकिरति स किल समासन्न महादुःख सङ्कटः वथमात्मानमविप्लुतं लभते । प्रतो मया मोहवाहिनीदिजयाय बद्धा कोयम् ।। ७६ ।। नामसंश-पावारंभ समुट्टिद वा सुह चरिध ण जाँद मोहादि ण त अप्पग मुद्ध। धातुसंज्ञच्चय त्यागे तृतीयगणी, सम् उद् ट्ठा गतिनिवृत्ती, जहा त्यागे, लभ प्राप्तो। प्रातिपदिक-पापारंभ समुत्थित वा शुभ चारित्र न यदि मोहादि न सत् आत्मक शुद्ध । मूलपातु-त्यज त्यागे, सम् उत् ष्ठा गतिनिवृत्तौ, ओहाका त्यागे जुहोत्यादि, दलभप प्राप्ती । उभयपदविवरण....पावार में पापारम्भं अप्पगं आत्मक सुद्धं शुद्ध-द्वितीया एकः । समुट्टिदो समुत्थितः सो सः-प्रथमा एक । सुहम्मि शुभे चरियाम्ह चारित्रे-सप्तमी एक० । मोहादी मोहादीन्-द्वितीया बहु । बत्ता त्यक्त्वा-असमास्तिकी क्रिया कृदन्त । जहदि जहात्ति लहदि लभते-दर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० किया । निरुक्ति-- शोभनं शुभः, चरणं चारित्रं, मोहनं मोहः । समास-मीपस्य आरम्भः पापारम्भः)तं पापारम्भ ।।६।। रम्भको त्यिवाया] छोड़कर [शुभे चरित्र] शुभ चारित्रमें समुत्थितः वा उठा हमा भी [दि] यदि जीव [मोहादीन] मोहादिको [न जहाति नहीं छोड़ता तो [सः] वह [शुद्ध आत्मक] शुद्ध प्रात्माको [न लभते] नहीं पाता है । तात्पर्य--पापारम्भ त्याग कर चारित्रमार्गमें लगकर भी यदि शुभोपयोगको हठसे मोहादिको नहीं छोड़ता है तो वह सहजात्मस्वरूपको नहीं प्राप्त कर सकता। टोकार्थ जो जीव समस्त सावद्ययोगके प्रत्याख्यानस्वरूप परमसामायिक नामक चारित्रको प्रतिज्ञा करके भी धर्त अभिसारिकाकी तरह शुभोपयोगपरिणतिसे मिलन पाता हुमा मोहकी सेनाके कृत्यको दूर नहीं कर डालता, वास्तव में महादुःख संकट निकट हैं जिसके, ऐसा वह शद्ध प्रात्माको कैसे प्राप्त कर सकता है ? इस कारण मैंने मोहकी सेनापर विजय प्राप्त करनेको यह कमर कसी है।
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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