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________________ प्रवचनसारः ३६ REAAMAYANKA रसतया समन्ततः सर्वेरेवेन्द्रियगुणः समृद्धस्य, स्वयमेव सामस्त्येन स्वपरप्रकाशनक्षमानश्वरलोकोत्तरज्ञान जातस्थ, अक्रमसमाकान्तसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया न किंचनापि परोक्षमेव स्यात् ।। २२ ।। किंचित् वि अपि समंत समन्ततः सदा मयं स्वयं एव हि-अव्यय । अस्थि अस्ति--वर्तमान लद अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । परोक्वं परोक्ष-प्रथमा एक० । सध्वक्खमुणसमिद्धस्स सर्वाक्षगुण समद्धस्य अक्खाती दस्स अक्षातीतस्य णाणजादस्स ज्ञानजातस्य-षष्ठी एक० । निरुक्ति-अक्षणोति व्याप्नोति जानाति इति अक्षः, आर्धत् इति ऋद्धं । समास-सर्वे अक्षाः सर्वाक्षारतेषां गुणाः सक्षिगुणा: सैः समृतः तस्य (अक्ष अतिक्रान्तः अक्षातीतः तस्य ।। २२ ॥ परोक्ष ही नहीं है। प्रसंगविवररर -----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि केवली भगवानके अतीन्द्रिय ज्ञान होनेसे सर्व पदार्थ प्रत्यक्ष हो जाते हैं। अब इस गाथामें बताया गया है कि केवली भगवान के प्रतीन्द्रियज्ञान होनेसे हो कुछ भी परोक्ष नहीं है । तथ्यप्रकाश-(१) ऋपसे कुछ कुछ पदार्थों का कुछ कुछ जानना अर्थात् परोक्ष ज्ञान इन्द्रियों के प्राश्रय के कारण होता है, किन्तु इन्द्रियोंसे अतीत भगवानके अतीन्द्रिय ज्ञानमें कुछ भी परोक्ष नहीं होता । (२) ज्ञान का कार्य जानना है, जाननेकी स्वयं कोई सीमा नहीं होती, ज्ञप्ति सीमाके निमित्त और संबंधकोंका केवली प्रभुके अभाव है, अतः केवलीके ज्ञान में सब स्पष्ट प्रत्यक्ष है । (३) प्रमुका ज्ञान त्रिलोकत्रिकालवर्ती समस्त पदार्थो को स्पष्ट जाननेसे तथा अविनश्वर होनेसे लोकोत्तर है। सिद्धान्त..... (१) ज्ञानावरणादि उपाधिरहित केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। दृष्टि-१- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय [२४] । प्रयोग----सहजज्ञानस्वभावके अनुरूप विकास पानेके लिये सहज ज्ञानस्वभावकी अभेद आराधना करना ।। २२ ।। अब प्रात्माके ज्ञानप्रमाणपनेको और ज्ञानके सर्व गतपनेको उद्योतते हैं--- [आत्मा] प्रात्मा [ज्ञानप्रमाणंज्ञान प्रमाण है [ज्ञानं] झान [यप्रमारवं] ज्ञेय प्रमाण [उद्दिष्ट] कहा मया है [ज्ञेयं लोकालोकं] ज्ञेय लोकालोक है [तस्मात्] इसलिये [ज्ञानं तु] ज्ञान [सर्वगतं] सर्वगत याने सर्व व्यापक है । तात्पर्य----ज्ञान अथवा प्रात्मा ज्ञानरूपसे समस्त लोकालोकमें व्यापक है । टीकार्थ-'समगुणपर्यायं द्रव्यं' इस वचनके अनुसार प्रात्मा ज्ञानसे हीनाधिकतारहित रूपसे परिणमित है, इसलिये ज्ञानप्रमाण है, और ज्ञान ज्ञेयनिष्ठ होनेसे, दाह्यनिष्ठ-दहनको .
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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