SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ सहजानन्दशास्त्रमालाया अथास्य भगवतोऽतीन्द्रियज्ञानपरिणतत्वादेव न किंचित्परोक्षं भवतीत्यभिप्रेति--- त्थि परोक्खं किंचि वि समंत सव्वक्वगुणासमिद्धस्स । अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स ॥ २२ ॥ कुछ भी परोक्ष नहिं है, समन्त सर्वाक्ष गुरणसमृद्धोंके । ज्ञायक प्रतीन्द्रियोंके, स्वयं सहज ज्ञानशीलोंके ॥२२॥ नास्ति परोक्ष विचिदपि समन्तत: सर्वाक्षगुणसमृद्धस्य । अक्षालीतस्य सदा स्वयमेव हि ज्ञानजातस्य ॥२२॥ प्रस्थ खलु भगवतः समस्तावरणक्षयक्षण एवं सांसारिकपरिच्छित्तिनिष्पत्तिबलाधानहेतुभूतानि प्रतिनियतविषयग्राहोण्यक्षारिग तैरतीतस्य, स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दपरिच्छेदरूपः सम नामसंज----ण परोक्ख किचि वि समंत सव्ववस्खगुणसमिद्ध अवखातीत सदा सयं एवं हि णाण जाद। धातुसंज---अस' सत्तायां । प्रातिपदिक-न परोक्ष किचित् अपि समन्ततः साक्षगुणसमृद्ध अक्षातीत सदा स्वयं एव हि ज्ञानजात । मूलधातु--असा मुवि अक्ष व्याप्ती अद्ध तृतौ । उभयपदविवरण--ण न किंचि सिद्धान्त--(१) केवलज्ञान सहजज्ञानस्वरूप उपादान कारण से ही प्रकट होता है। (२) शुद्धात्मा सर्व पदार्थोको जानता है। (३) केवलज्ञान समस्त ज्ञानावरणके क्षयसे प्रकट होता है। दृष्टि-१-- शुद्धनिश्चयनय [४६] 1 २- स्वाभाविक उपचरित स्वभावव्यवहार [१०५] । ३- निमित्तदृष्टि, उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय [५३, २४] । प्रयोगअपने आपको सहज विकसित रखनेके लिये सहज ज्ञानस्वभावमें आत्मत्वका उपयोग करना ॥२१॥ ___ अब अतीन्द्रिय जानरूप परिणतपना होनेसे ही भगवानके कुछ भी परोक्ष नहीं है, ऐसा अभिप्राय व्यक्त करते हैं----सदा अक्षातीतस्य] सदा इन्द्रियातीत [समन्ततः सर्वाक्षगुरणसमृद्धस्य सर्व पोरसे अर्थात् सर्व प्रात्मप्रदेशोंसे सर्व इन्द्रियगुणोंसे समृद्ध [स्वयमेव हि ज्ञानजातस्य] स्वयमेव ज्ञानरूप हुए उन केवली भगवानके [किचित् अपि] कुछ भी [परोक्षं नास्ति परोक्ष नहीं है। तात्पर्य-इन्द्रियातीत स्वयं ज्ञानरूप हुए केवली प्रभुके कुछ भी परोक्ष नहीं है। टीकार्थ-समस्त प्रावरणके क्षयके क्षण में ही सांसारिक ज्ञानकी निष्पत्ति करनेमें बलाधान हेतुभूत, सपने-अपने निश्चित विषयों को ग्रहण करने वाली इन्द्रियोंसे अतीत, स्पर्श रस गंध वर्ण और शब्दके ज्ञानरूप सर्व इन्द्रियगुणोंके द्वारा सर्व ओरसे समरस रूपसे समृद्ध और जो स्वयमेव समस्त रूपसे स्वपरके प्रकाश करने में समर्थ अविनाशी लोकोत्तर ज्ञानरूप हुए ऐसे केवली भगवानके समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका अक्रमिक ग्रहण होनेसे कुछ भी
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy