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________________ ३२४ हजानन्दशास्त्रमालायां त्राश्रितत्वेन स्वलक्षणतां विभ्राणं शेषद्रव्यान्तरविभागं सावयति । श्रलिङ्गग्राह्य इति वक्तव्ये यदलिङ्गग्रहणमित्युक्तं तद्बहुतरार्थप्रतिपत्तये । तथाहि-न लिगैरिन्द्रियग्राहकतामापनस्य ग्रहणं यस्येत्यतीन्द्रियज्ञानमयत्वस्य प्रतिपत्तिः । न लिगैरिन्द्रियग्रतामापन्नस्य ग्रहणं यस्ये सोन्द्रियप्रत्यक्षाविषयत्वस्य । न लिंगादिन्द्रियगम्यादधूमादग्नेरिव ग्रहणं यस्येतीन्द्रिय प्रत्यक्ष पूर्वकानुमानाविषयत्वस्य । न लिंगादेव परः ग्रहणां यस्येत्यनुमेयमानत्वाभावस्य । न लिंगादेव परेषां ग्रहणं यस्येत्यनुमात्तृमात्रत्वाभावस्य । न लिंगात्स्वभावेन ग्रहरणं यस्येति प्रत्यक्षज्ञातृत्वस्य । न लिंगेनोपयोगाख्यलक्षणेन ग्रहणं ज्ञेयार्थालम्बनं यस्येति बहिरर्थालम्बनज्ञानाभावस्य । न लिंग स्योपयोगाख्यलक्षणस्य ग्रहणं स्वयमाहरणं यस्येत्यनाहार्यज्ञानत्वस्य । न लिंगस्योपयोगाख्यल क्षणस्य ग्रहणं परेण हरणं यस्येत्यहार्यज्ञानत्वस्य । न लिंगे उपयोगाख्यलक्षणे ग्रहणं सूर्य इवो परागो यस्येति शुद्धोपयोगस्वभावस्य । न लिंगादुपयोगाख्यलक्षणादग्रहणं पौगलिककर्मादान अशब्द लिङ्गग्रहण जीव अनिदिष्टसंस्थान । मूलधातु--ज़ा अवबोधने, लिंगि चित्रोंकरणे, रस आस्वाद, रूप प्रेक्षरणे, प्रा गंधोपादाने, त्रि अजि शब्दार्थः । उभयपदविवरण- अरसं अरू अरूपं अगंधं जगन्ध व्यक्तता प्रभावरूप स्वभाववाला होनेसे, शब्दपर्यायके प्रभावरूप स्वभाव वाला होनेसे तथा इन सबके कारण लिंगके द्वारा अग्राह्य होनेसे, और सर्व संस्थानोंके प्रभावरूप स्वभाव वालों होनेसे, श्रात्माके, पुद्गलद्रव्यसे विभागका साधनभूत परसत्व, प्ररूपत्व, अगंधत्व, अव्यक्तत्व; अशब्दत्व, अलिंगग्राह्यत्व और संस्थानत्व है । पुद्गल तथा प्रमुद्गल समस्त ग्रजीव द्रव्योंसे विभागका साधन तो चेतनागुणमयपना है; और वही, मात्र स्वजीवद्रव्याश्रित होनेसे स्वलक्षण पकी धारण करता हुआ, श्रात्माका शेष द्रव्योंसे भेद सिद्ध करता है । से यहाँ 'लिंगा' ऐसा कहना योग्य होनेपर भी जो 'ग्रलिंगग्रहरण' कहा है, वह बहुत प्रतिपत्ति करनेके लिये है । वह इस प्रकार है -- ( १ ) लिंगोंके द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्राहकपनेको प्राप्त हो इस रूपका ग्रहण जिसका नहीं होता वह ग्रलिंग ग्रहण है; इस प्रकार ग्रात्मा अतीन्द्रियज्ञानमयपनेकी जानकारी होती है । (२) लिंगोंके द्वारा अर्थात् इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य हो इस रूपका ग्रहण जिसका नहीं होता वह प्रलिंग ग्रहरण है। इस प्रकार 'आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्षका विषय नहीं है' इस प्रर्थकी जानकारी होती है । ( ३ ) जैसे घुसे श्रमिका ग्रहण (ज्ञान) होता है, उसी प्रकार लिंगसे अर्थात् इन्द्रियगस्य चिह्नसे जिसका ग्रहण नहीं होता वह ग्रलिंगग्रहण है । इस प्रकार आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वक अनुमानका त्रिषय नहीं है' इस अर्थ की जानकारी होती है । (४) मात्र लिंगसे हो दूसरोंके द्वारा जिसका ग्रहण नहीं होता वह श्रलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा अनुमेय मात्र नहीं है' इस अर्थको जानकारी होती है । ( ५ ) जिसका लिंगसे ही ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है। -
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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