SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका ३१५ विद्वेण बभूति लुक्खा लुक्खा य पोम्गला । निखलुक्खा य बज्भति रूवारूवी य पोग्गला ।।" गितस्स गिद्धेण दुराहिएण लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिए । सिद्धस्स लुक्खेण हवेदि बंघो जहहज्जे विसमे समे वा ।। १६६।। अणु: पंचगुणजुतो पंचगुणयुक्तः प्रथमा एकवचन | अहवदि अनुभवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया | बज्झदि बध्यते - वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन भावकर्मप्रक्रिया । निरुक्ति-- गुणग्रनं गुणः आमन्त्रणे चुरादि । समास-द्वे गुझे यस्मिन् स द्विगुणः चत्वारः गुणाः यस्मिन् स चतुर्गुणः चतुगुं - मनासी स्निग्धश्चेति चतुर्गु णस्निग्धः तेन च०, पंचभिः गुणैः युक्तः इति पंच० | १६६ || से दूसरेका दो अधिक अविभाग प्रतिच्छेद वाला स्निग्धपना व रूक्षपना है । ( २ ) जैसे दो गुण वाले व चार गुण वाले स्निग्ध स्निग्ध या रूक्ष रूक्ष या स्निग्धरूक्ष या रूक्षस्निग्ध परमाant बन्ध हो जाता है । ( ३ ) यहां गुरण शब्दका वाक्य अविभागप्रतिच्छेद है । ( ४ ) यहाँ परमाणु बोके बन्धके प्रसंग में २ श्रविभागप्रतिच्छेद वाले स्निग्ध रूक्षसे लेकर अनन्त श्रविभागप्रतिच्छेद वाले स्निग्ध रूक्ष तक घटित करना । (५) दो से अधिक कितने ही विभागप्रति छे हों, परस्पर एकसे दूसरेके दो प्रविभाग प्रतिच्छेद होनेपर ही बन्ध होता है । सिद्धान्त - ( १ ) पुद्गलपरमाणुवोंका परस्पर बन्ध होनेपर एक पिण्डरूपता हो जाती दृष्टि - १० समानजातीयविभावद्रव्यव्यञ्जन पर्यायदृष्टि (२१५) । प्रयोग- शरीर आदि पोद्गलिक पिण्डोंसे विविक्त निज आत्माको किन्हीं भी व्यक्त न निरखकर पर्यायको दृष्टिसे अन्तः निहारकर उससे भी परे परमशुद्ध चित्स्वरूप * उपयोग करना ॥१६६॥ अब आत्मा, पुद्गलपिण्डकतृत्वका प्रभाव निश्चित करते हैं - [सूक्ष्मा वा वादराः ] सूक्ष्म अथवा बादर और [ संसंस्थाना: ] आकारों सहित [ द्विप्रदेशादय: स्कंधाः] दो से लेकर अनन्तप्रदेश तक के स्कन्ध [पृथिवी जलतेजोवायवः ] पृथ्वी, जल, तेज और वायुरूप [ स्वकपरिणामः जायन्ते ] अपने परिणामोंसे उत्पन्न होते हैं । तात्पर्य - पुद्गल पिण्डों के कर्ता पुद्गल हो हैं, प्रात्मा उनका कर्ता नहीं । टोकार्थ -- पूर्वोक्त प्रकार से ये उत्पन्न होने वाले द्विप्रदेशादिक स्कंध - जिनने कि विशिष्ट अवगाहनकी शक्तिके वश सूक्ष्मता श्रीर स्थूलतारूप भेद ग्रहण किये हैं, और विशिष्ट श्राकार धारण करने की शक्तिके वश होकर विचित्र संस्थान ग्रहण किये हैं वे अपनी योग्यतानुसार रस गंध के आविर्भाव और तिरोभावकी (स्वशक्तिके वश होकर पृथ्वी, जल, श्रग्नि और वायुरूप अपने परिणामोंसे ही होते हैं। इससे निश्चित होता है कि द्वयरगुकसे लेकर
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy