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________________ १२ सहजानन्दशास्त्रमालायां इत्यर्थपरिणामनादित्रियाणामभावस्य शुद्धात्मनो निरूपितत्वाचार्थानपरिगमतोऽगृततस्तेष्वनुपद्यमानस्य चात्मनो लिक्रियास इवेऽगि न खनु क्रियाफलभूतो बन्धः सिद्धयत् ।। ५२ ।। वि अपि न एब-अव्यय । तेषु अन, अर्थ--सप्तमी बहु । परिशमदि परिणति गेहदि गृह्णाति उपजदि उत्पद्यते..वर्तमान नाद अन्य गुमप एकाचन चिया । जाणं जानन्-प्रथमा एक कृदन्त किस । तात्पर्य--प्रभु सबको जानते हुए भी उनका किसी से कुछ संसर्ग नहीं प्रतः सर्वज्ञ प्रभु बन्ध रहित हैं। टोकार्थ-यहाँ "उदयगदा का मंसा जिगाव रब सहेहि गियदिणा भगिया । तेमु विमूढा रत्तो वो बा बंधाशुभव दि ।।'' इस गाथ! सूत्रमें "उदयगत पुद्गल कर्माशोंके होनेपर अनुभव करने वाला जीव मोह-राग-द्वेष में परिणतपना होनेसे ज्ञेयार्थ परिण मनस्वरूप क्रियाके साथ युक्त होला हुआ क्रियाफलभूत बन्धको अनुभवता है, किन्तु झानसे नही" इस प्रकार पहले ही अर्थपरिणमन क्रियाक फलरूपसे बन्धका समर्थन किया गया है तथा "गेण्हदि रोव गा मुञ्चदि राण दरं परिमादि केवली भगवं । पेच्छदि समतदो को जागदि सव्यं गिरवसेसं ॥” इस गाया सूत्र में शुद्धात्माके अर्थपरिणमनादि क्रियाअोंके प्रभावका निरूपण किया गया होनेसे पदार्थरूप में परिणमित नहीं होते हुए, उसे ग्रहण नहीं करते हुए और उसरूप उत्पन्न नहीं होते हुए यातगाके शतिक्रियाका सद्भाव होनेपर भी वास्तवमें क्रियाफलभूत बन्ध सिद्ध नहीं होता। __अब पूर्वोक्ता आया यको काव्य द्वारा कहकर, केवलज्ञानी ग्रात्माकी महिमा बताते हैंजानन् इत्यादि.--.-अर्थ-कर्मोको छेद झाला है जिसने ऐसा यह प्रात्मा भूत, भविष्यत् और दर्तमान समस्त विश्वको एक ही साथ जानता हुआ भी मोहके अभावके कारण पररूप परि. स्पमित नहीं होता, इस कारण अत्यन्त विकसित झप्तिके विस्तारसे स्वयं पी डाला है वाकारोंको जिसने ऐसा वह ज्ञानमूर्ति तीनों लोकके पदार्थों को पृथक् और अपृथक प्रकाशित करता हमा मुक्त ही रहता है । इस प्रकार ज्ञान-अधिकार समाप्त हुया । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि युगपवृत्तिसे ही जानने में शानका सर्वगतपना सिद्ध होता है। अब इस गाथामें सर्वज्ञदेवके ज्ञप्तिक्रिया निरन्तर होते रहनेपर भी उसके क्रियाफलभूत बन्धका प्रतिषेध किया गया है। तथ्यप्रकाश---(१) जाननक्रिया होनेपर भी यदि प्रात्मा झेंयार्थपरिणमन क्रियासे युक्त नहीं है तो उसके कर्मबन्ध नहीं होता । (२) मोहनीय कर्मका उदय होनेपर वेदन करने वाला जीव मोह रागद्वेष भावसे परिणत होता है । (३) मोह रागद्वेषसे परिणस जीव ज्ञेयार्थपरिणमन क्रियासे युक्त होता है । (४) जेवार्थपरिणामान क्रिपासे युक्त हो रहा जीव क्रियाफल
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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