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________________ SA muotelistasmpowSHORanties प्रवचनमा?-राप्तवशाली टीका जागन्येष विश्व युगपदपि भव-विभून सामरलं मोहाभावाचदात्मा परिरमति पर नेत्र निलनकर्मा । तेनास्ले मुक्त एव प्रसविलासितास्तिविस्तारपीसनेयाका त्रिलोकी पृथपृथगथ गौतयनु ज्ञानमूर्तिः ||४|| इति ज्ञानाधिकारः । से तानः द्वि० बहु० । आदा आत्मा-- रावा । अबश्यगी अबकाया: 6 ' Te:--Yo Do कृदन्त त्रिया । लेग्य तेन-तृतीया एन । निस्ति । तिनका कति अवचन: ।५.२।। भूतः बन्धको अतुझ्यता है । (५) मोहनीयकमका उदित अनुभाग उपयोगभूमिकामें प्रतिफलित होता हैं। (६) प्रतिफलित अनुभागको स्वीकार करनगे मोह राम द्वेष भाव होता है। (७) मोह राग द्वेष भाव होनेसे विषयभूत ज्ञेय पदार्थको परिगमनके अनुसार जोद अपना परिणाम बनाता है । (5) ज्ञेय पदार्थ के परिणमान के अनुसार इष्ट अनिष्ट ग्रादि भावरूप परिणाम बनाने को ज्ञयार्थपरिणमन क्रिया कहते हैं । (६ } केबली भगवान परपदार्थको न तो ग्रहशा करते हैं, न छोड़ते हैं, न परिण माते हैं, न जेय अर्थ के परिण मान के अनुसार परिणामते हैं, ये तो बल देवते जानते हैं । (१०) इष्ट अनिष्ट बुद्धि नकार मान्न देखने जानने वालेको ज्ञाता द्रष्टा कहते है। (११) सर्वज्ञदेव बोतराग हैं, ज्ञाता द्रष्टा हैं, अत: उन के ज्ञेयार्थपरिणामन क्रिया नहीं होती, वल ज्ञप्तिक्रिया होती। (१२) युछ भी विकल्प न कर मात्र जाननेको झप्तिकिया कहते (१३.) सर्वज्ञदेव के ज्ञप्तिक्रिया है, किन्तु सेवार्थपरिगामन क्रिया नहीं, अत: केवली प्रभुके सर्वविश्वज्ञेयाकाराकान्त होनेपर भी .मबन्ध नहीं होता। (१४) प्रभुया कार्य अर्थात् कर्म जान (जानना) है। (१५) कोई भी कार्य किया बिना नहीं होता । (१६) निश्चयतः कर्म और क्रिया उस एक ही द्रव्यमें है । (१४) ज्ञान (जानन) की क्रियाको ज्ञप्तिक्रिया कहते हैं। १) भगवान ज्ञानको हो ग्रहण करते हैं, अतः ज्ञान प्राप्य होनस ज्ञान हो प्रभुका कर्म है । [१६) प्रभु शानरूप ही परिणामिल होते हैं, अतः ज्ञान विकार्य होने ज्ञान ही प्रभुका कम है। (३०) प्रभु ज्ञानरूप ही उत्पन्न होते हैं, अत: ज्ञान ही निर्वयं होनेसे ज्ञान ही प्रभुका कम है। (२१) ज्ञप्तिक्रियाका फल निरपेक्ष सहज प्रानन्य है । (२२) ज्ञेयार्थपरिणमन क्रिया का फल कर्मवन्ध है। सिद्धान्त-(१) उपाधिका अभाव होने से भगवानका शुद्ध ज्ञान परिमन होता है। दृष्टि--- १- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकान य [ ५४] । प्रयोग..---संसारसंकटोंके कारणभूत कमबन्धसे हटने के लिय अविकार चैतन्यस्वभावमें उपयुक्त होकर ज्ञाता द्रष्टा रहनेका पौरुष करना ॥५२॥ अब ज्ञानसे अभिन्न सुखके स्वरूपको विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए ज्ञान और मुख MobsevibiteANOHemammiOMADR ASINOMPANIMALINSAHASRE6000000002पासासम00000000000080Y wwwAKAAMRE CRPORATikam muTIRIYA
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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