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________________ ४५१ प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका प्रयागमज्ञानतस्वार्थ श्रद्वान संयतत्वानामयौगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटयतिहि श्रागमेण सिज्झदि सदहां जदि वि गत्थि प्रत्थे । सहमाणो अत्थे संजदो वाण गिव्वादि ॥ २३७ ॥ आगमज्ञानमात्रसे सिद्धि नहीं यदि न तत्त्व श्रद्धा हो । तत्त्वश्रद्धालु भी यदि, श्रसंयमी हो न मोक्ष पाता है ॥ २३७॥ ह्याममेन सिद्धति श्रद्धानं यद्यपि नास्त्यर्थेषु । श्रद्दधान अर्थानसंपतो वान निर्वाति ॥ २३७ ॥ श्रद्धानशून्येनागम जनितेन ज्ञानेन तदविनाभाविना श्रद्धानेन च संयमशून्येन न तावत्सयति । तथाहि ग्रागमवलेन सकलपदार्थान विस्पष्टं तर्कयन्नपि यदि सकलपदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविकज्ञानाकारमात्मानं न तथा प्रत्येति तदा यथोदितात्मनः श्रद्धानशून्यतया यथो नामसंजण हि आगम सद्दह्ण जदिवि ण अत्यं सहमाण अत्य असंजद वा ण । घातुसंज्ञ - सिज्झ निष्पत्ती, अस सत्तायां निर वा वायु संचरणे निर्वाणेच, सद्दह वारणे । प्रातिपदिक-हि आगम श्रद्धा यदि अनि अत्य श्रद्दधान अर्थ असंयत वा न । मूलधातु- षिधु गती, अस् भुवि, श्रद्धा धारणे, निर् वा संचरण निर्वारो। उभयपद विवरण- ण न हि जदि यदि वि अपि- अव्यय | आगमेण आगमेन A तात्पर्य --- प्रागमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान व असंयतपना यदि ये एक साथ नहीं है तो भी मोक्ष नहीं होता । टीकार्थ- श्रद्धानशून्य श्रागमजनित ज्ञानसे, और संयमशून्य ग्रागमज्ञान के बिना नहीं होने वाले श्रद्धानसे भी, सिद्धि नहीं होती । स्पष्टोकरण - श्रागमबलसे सकल पदार्थोकी बिस्पष्ट तर्करणा करता हुआ भी यदि जीव सकल पदार्थोंके ज्ञेयाकारोंके साथ मिलित होने वाला विशद एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे आत्माको उस प्रकारसे प्रतीत नहीं करता तो यथोक्त श्रम के श्रद्धान से शून्य होनेके कारण यथोक्त आत्माका अनुभव नहीं करने वाला ज्ञेयनिमग्न ज्ञानविमूढ़ जीव कैसे ज्ञानी होगा ? और शेयद्योतक होनेपर भी, आगम अज्ञानीका क्या करेगा? इस कारण श्रद्धानशून्य आगमसे सिद्धि नहीं होती । श्रोर, सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारोंके साथ मिलित होता हुआ एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे आत्माका श्रद्धान करता हुआ भी, अनुभव करता हुआ भी यदि जीव अपने में ही संगत होकर नहीं रहता, तो अनादि मोह राग द्वेषको वासनासे उद्भुत परद्रव्यमें भ्रमणको स्वेच्छाचारिणी चिद्वृत्ति स्वमें ही रहनेसे, वासनारहित निष्कंप एक तत्त्वमें लीन चिद्वृत्तिका प्रभाव होनेसे, वह कैसे संयत होगा ? प्रौर असंयतका यथोक्त आत्मतत्वकी प्रतीतिरूप श्रद्धान या यथोक्त श्रात्मतत्वको अनुभूतिरूप ज्ञान करेगा ? इसलिये संयमशून्य श्रद्धानसे या ज्ञानसे सिद्धि नहीं होती । इस कारण श्रागम
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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