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________________ प्रवचनसार - सप्तदशाङ्गी टीका • कतथाविधयोगाशुद्धियुक्तत्वस्य परद्रव्यसापेक्षत्वस्य चाभावान्मुच्छारम्भवियुक्तत्वमुपयोगयोगशुद्वियुक्तत्वमपरापेक्षत्वं च भवत्येव तदेतदन्तरंग लिंगम ॥ २०५ २०६ ॥ ३६१ बहु० | उपयोगयोगशुद्धिभ्यां तृतीया द्विवचन । ण न-अव्यय । निरुषित- क्लिश्मासीति केशः क्लिशू विबाधने क्लिश | अन् लोपः श्म पुंमुखं श्रूयते लक्ष्यते अनेन इति श्मश्रुः । समास- उत्पादितः केश: रम श्रुकः यत्र तत् उत्पादित केशश्मश्र ुक (मूर्च्छा च आरम्भश्च मूर्द्धारम्भ ताभ्यां वियुक्त मूर्च्छारम्भवियुक्त.. उपयोगश्च योगश्चेति उपयोगयोगी तयोः शुद्धिः उपयोगयोगशुद्धिः ताभ्याम् उपयोगयोगबुद्धिभ्याम् ॥२०५ २०६॥ शुभ व अशुभ उपयोग न होनेसे योग प्रशुद्ध कैसे बने, अतः निर्विकल्पसमाधिरूप योगशुद्धव प्रकट होता है, अब मन वचन कायकी चञ्चलता नहीं रहती । (१३) मोहरागद्वेषादिभावका प्रभाव होनेसे परकी अपेक्षा कैसे बने, अतः निर्मलानुभूति परिणति व निरपेक्ष सहज ज्ञानवर्तना होती है । (१४) मूर्च्छारहितपना, आरम्भभावरहितपना, शुद्धोपयोग, स्थिरपना व निरपेक्षपना ये यथाजातरूप मुद्रा अन्तरङ्ग लिङ्ग (चिह्न) हैं । सिद्धान्त - १ - अन्तरङ्ग बहिरङ्ग उपाधियोंका अभाव होनेसे शुद्ध परिणति प्रकट ...होती है । दृष्टि - १ - उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय (२४) । प्रयोग — निरुपाधि शुद्ध शान्त सहजानन्दमय स्वरूप प्रकट करनेके लिये निरुपाधिमुद्रा 1. में रहकर सहज शुद्ध ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वको उपासना करना || २०५-२०६ ।। श्रामण्यार्थी इन दोनों लिंगोंको ग्रहण करके, और यह यह करके श्रमण होता हैं, इस प्रकार भवतिक्रियामें बंधुवर्गसे विदा लेनेरूप क्रियासे लेकर शेष सभी क्रियाओंका एक कर्ता दिखलाते हुये, इतना करनेसे श्रामण्यकी प्राप्ति होती है, यह उपदेश करते हैं --- [परमेण गुररणा ] परम गुरुके द्वारा प्रदत्त [तदपि लिंगस्] उन दोनों लिंगों को [ श्रादाय ] ग्रहण करके, [तं नमस्कृत्य ] गुरुको नमस्कार करके, [सव्रतां क्रियां श्रुत्वा ] व्रत सहित क्रियाको सुनकर [ उपस्थितः ] श्रात्मा के समीप स्थित होता हुआ [स] वह [श्रमणः भवति ] श्रमण होता है । तात्पर्य - बहिरंग अन्तरंग लिङ्ग ग्रहण करके शिक्षा सुनकर स्वस्थ होता हुआ वह श्रमण होता है । टीकार्थ -- तत्पश्चात् श्रमण होनेका इच्छुक दोनों लिंगोंको ग्रहण करता है, गुरुको नमस्कार करता है, व्रत और क्रियाको सुनता है और फिर उपस्थित होता है; तथा उपस्थित होता हुआ श्रामण्यकी सामग्री परिपूर्ण होनेसे श्रमण होता है । इसका स्पष्टीकरण - प्रथम
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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