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________________ Wa ४६६ सहजानन्दशास्त्रमालायां l ken SS अर्थकाग्रयस्य मोक्षमार्गत्वमवधारयन्नुपसंहरति-- अढेसु जो ण मुझदि ण हि रज्जदि गोव दोसमुक्यादि। समणो जदि सो णियदं खवेदि कम्माणि विविहाणि ॥२४४॥ मोह न पदार्थोंमें, तूपे नहिं द्वष नहिं करे जो यदि । वह श्रमरण विविध कर्मों का प्रक्षय किया करता है ।।२४४॥ अर्थ, यो न मुह्यति न हि रज्यति नैव द्वेषमुपयाति । श्रमणो यदि स नियतं क्षपति कर्माणि विविधानि ।। यस्त जानात्मानमात्मानमेकमग्रं भावयति स न ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीदति । तदनासाय च ज्ञानात्मात्मज्ञानादभ्रष्टः स्वयमेव ज्ञानीभूत स्तिष्ठन्न मुह्यति न रज्यति न द्वेष्टि तथाभूतः सन् मुच्यत एव न तु बध्यते । प्रत ऐकाग्रयस्यैव मोक्ष मार्गत्वं सिद्धयेत् ।।२४४।। इति मोक्षमार्गप्रज्ञापनम् । नामसंज्ञ- अट्ट जण ण हिप एव दोस समण जदि त णियद कम्म विविह । धातुसंज्ञ...-मुग्म मोहे, रन रागे, खव क्षयकरणे, उव या प्रापणे । प्रातिपदिक.... अर्थ यत् न हि न एव द्वेष श्रमण यदि तत् निया कर्मन् विविध । मूलधातु-मुह वैचित्ये, रंज रागे, उप या प्रापणे, क्षपि भयक रणे । उभयपदविव. रण-अट्ट सु अर्थपु-सप्तमी बहु० । जो यः सो सः समणो श्रमण:-प्रथमा एक० । ण न हि एव जदि यदिअव्यय 1 मुज्मादि मुह्यति रज्जदि रज्यति उवयादि उपयाति खवेदि क्षपति-वर्त अन्य० एक क्रिया। दोतं द्वेग-द्वितीया एक० । णियदं नियतं-क्रियाविशेषण। कम्माणि कर्माणि विविहाणि विविधानि--द्वितीया बहुवचन । निरुक्ति-- यदि-हेतुहेतुमद्भावप्रसंग यत् + इन् ।॥२४४३॥ वर्तता हा (वह) मुक्त ही होता है, परन्तु बंधता नहीं है। इस कारण एकापनेके ही मोक्षमार्गपना सिद्ध होता है। प्रसंगविवरण ---- अनन्तर पूर्व गाथामें बताया गया था अनकायके मोक्षमार्गपना विघट जाता है। अब इस गाथामें ऐकायके मोक्षमार्गपनेका निश्चय कराते हुए मोक्षमार्गके इस स्थानका उपसंहार किया गया है । तथ्यप्रकाश-(१) जो ज्ञानात्मक एक मात्र प्रात्माको भावना करता है वह ज्ञेयभूत अन्य द्रव्यका पाश्रय नहीं करता है। (२) ज्ञेयभूत अन्य द्रव्यका प्राश्रय न करके ज्ञान स्वरूप प्रात्माके ज्ञानसे भ्रष्ट न होता हुआ श्रमण स्वयं ही ज्ञानरूप रहता है । (३) ज्ञानात्मकस्व. संवेदी श्रमण ज्ञानरूप रहता हुमा न तो मोह करता है न राग करता है और न द्वेष करता है । (४) राग द्वेष मोह न करता हुना ज्ञानी कर्मोंसे छूटता ही है, किन्तु बँधता नहीं है। (५) चंकि ज्ञानात्मक एक अग्र आत्माको भानेसे श्रमण निविकार होकर कर्मोंसे छूटता है, अजः इस ऐकाय भावमें ही मोक्षमार्गपना सिद्ध होता है । (६) प्रागमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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