SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८५ प्रवचनसार -- सप्तदशाङ्गी टीका प्रयोत्पादव्ययप्रौव्यात्मकत्वेऽपि सद्द्रव्यं भवतीति विभावयतिसदवहिदं सहावेदं दव्वं दव्वस्स जो हि परिणामो । त्थे सो सहावो ठिदिसंभवणाससंबद्धो ॥६६॥ स्वभावस्थ होनेसे द्रव्य कहा सत् व द्रव्यपरिणाम भि । हे अर्थका स्वभाव हि थितिसंभवनाश समवायी ॥ ६६ ॥ दवस्थित स्वभावे द्रव्यं द्रव्यस्य यो हि परिणामः । अर्थेषु स स्वभावः स्थिति संभवनाशसंबद्धः ॥ ६६ ॥ इह हि स्वभावे नित्यमवतिष्ठमानत्वात्सदिति द्रव्यम् । स्वभावस्तु द्रव्यस्य ध्रौव्योत्पादोच्छेदैक्यात्मक परिणामः । यत्र हि द्रव्यवास्तुनः सामस्त्येन कस्यापि विष्कम्भक्रमप्रवृत्तिवर्तिनः सूक्ष्मांशाः प्रदेशा:, तथैव हि द्रव्यवृत्तेः सामस्त्येनैकस्यापि प्रवाहक्रमप्रवृत्तिवर्तिनः सूक्ष्मांशाः परिणामाः । यथा च प्रदेशानां परस्परव्यतिरेकनिबन्धनो विष्कम्भक्रमः, तथा परिणामानां परस्परव्यतिरेकनिबन्धनः प्रवाह क्रमः । यथैव च ते प्रदेशाः स्वस्थाने स्वरूपपूर्वरूपाभ्यामुत्पन्नोच्छ वात्सर्वत्र परस्परानुस्मृति सूत्रितक वास्तुतयानुत्पन्नप्रलीनत्वाच्च संभूतिसंहारप्रीव्यात्मकमा -स्मानं धारयन्ति तथैव ते परिणामाः स्वावसरे स्वरूपपूर्वरूपाभ्यामुत्पन्नोच्छन्नत्वात्सर्वत्र पर 33 नामसंज्ञ - सद्भवद्विद सहाव दव्य ज हि परिणाम अत्य त सहाय विदिसंभवणाससंबद्ध | धातु(अवट्ठा गतिनिवृत्तौ संबंध बंधने । प्रातिपदिक--- सत्अवस्थित स्वभाव द्रव्य यत् हि परिणाम अर्थ यत् स्वभाव स्थिति संभवनाशसंबद्ध । मूलधातु- अब प्ठा गतिनिवृत्ती, संबन्ध बन्धने । उभयपद विवरणश्रीव्य उत्पादविनाशको एकतास्वरूप परिणाम है । जैसे श्रखण्डतासे एक होनेपर भी द्रव्यवास्तुके विस्तारक्रममें प्रवर्तमान जो सूक्ष्म अंश हैं वे प्रदेश हैं, इसी प्रकार समग्रतया एक होनेपर भी द्रव्यवृत्तिके प्रवाहक्रममें प्रवर्तमान जो सूक्ष्म अंश हैं वे परिणाम हैं । जैसे विस्तारक्रम प्रदेशों के परस्पर व्यतिरेक के कारण है, उसी प्रकार प्रवाहक्रम परिणामोंके परस्पर व्यतिरेकके कारण है । जैसे वे प्रदेश अपने स्थान में स्वरूपसे उत्पन्न और पूर्वरूपसे विनष्ट होनेसे तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति से रचित एकवास्तुतासे अनुत्पन्न - प्रविष्ट होनेसे उत्पत्ति संहारश्रीव्यात्मक अपनेको रखते हैं, उसी प्रकार के परिणाम अपने अवसर में स्वरूपसे उत्पन्न और पूर्वरूप सेविनष्ट होनेसे तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्युतसे रचित एकप्रवाहत्व से अनुत्पन्न - प्रविष्ट होने से उत्पत्ति-संहार प्रौव्यात्मक श्रपनेको रखते हैं । और जैसे वास्तुका जो ही छोटेसे छोटा अंश पूर्व प्रदेश के विनाशस्वरूप है वही ग्रंथ उसके बादके प्रदेशका उत्पाद स्वरूप है तथा वही परस्पर अनुस्यूति से रचित एक वास्तुत्व से अनुभय स्वरूप है, इसी प्रकार प्रवाहका जो प्रल्पाति अल्प अंश पूर्वपरिणामके विनाशस्वरूप है वही उसके बाद के परिणामके उत्पादस्वरूप है, तथा
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy