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________________ :३६ सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ ज्ञानस्वरूपप्रपञ्चं च क्रमप्रवृत्तप्रबन्धद्वयेनाभिदधाति । तत्र केवलिमतीन्द्रियज्ञानपरिपतत्वात्सर्वं प्रत्यक्षं भवतीति विभावयति---- परिणमदो खलु गाणं पञ्चकखा सव्वदव्वपज्जाया । सो व ते विजादि उग्गहपुव्वाहिं किरियाहि ॥ २१ ॥ ज्ञानपरित प्रभू, सब प्रत्यक्ष हैं द्रव्यपर्यायें । सो वे ग्रहादिक पूर्वक नहिं जानते क्रमसे ॥२१॥ परिणममानस्य खलु ज्ञानं प्रत्यक्षाः सर्वद्रव्यपर्यायाः । स नैव तान् विजानात्यग्रहभिः क्रियाभिः ॥ यतो न खल्विन्द्रियाण्यालम्ब्यावग्रहाचायपूर्वक प्रक्रमेण केवली विजानाति, स्वयमेव समस्तावरणक्षक्षण एवानाद्यनन्ताहेतुकासाधारणभूतज्ञानस्वभावमेव कारणत्वेनोपादाय तदु नामसंज्ञ परिणमन्त खलु पच्चवख सव्यदव्वपज्जाय तण एवं उग्गहया किरिया । धातुसंज्ञ fa जा अवबोधने । प्रातिपदिक- परिणममान खलु ज्ञान प्रत्यक्ष सर्वद्रव्यपर्याय तण एवं त अवग्रहपूर्वा क्रिया । मूलधातुवि ज्ञा अवबोधने । उभयपद विवरण- परिणमदो परिणममानस्थ-पष्टी एक परिण ममान अन्तर्गत क्रियाविशेषण | खलुन एव अन्यय । पच्चवखा प्रत्यक्षाः - प्रथमा बहु | सदा. क्षय होनेसे अनन्त ज्ञान दर्शन ग्रानन्द शक्ति वाले हैं उनका शरीरसे कुछ प्रयोजन नहीं है । अतः शारीरिक सुख दुःख नहीं । (५) अरहंत भगवानके घातिया कर्मका प्रभाव होनेसे अनंत आनन्द है वहाँ शुधादि दुःख नहीं है । (६) अरहंत भगवान के परमोदारिक देहमें सूक्ष्म सरस सुगंध नोकर्म वर्गका सम्बन्ध ( नोकर्माहार) होता रहता है, श्रतः सहजानन्तानन्दमय भगवान के कबलाहारादि सुखका क्षोभ नहीं । ( ७ ) भगवान के अतीन्द्रिय अनन्त ज्ञान और अतीन्द्रिय ग्रनन्त श्रानन्द है । सिद्धान्त --- (१) प्रभुके आत्मीय श्रनन्त ज्ञान व आनन्द है । (२) प्रभुका ज्ञान व आनन्द स्वाभाविक है । दृष्टि - १- शुद्ध निश्चयनय [४६] २- स्वभावगुणव्यञ्जनपर्यायदृष्टि [२१२] | प्रयोग - भगवानके स्वाधीन ज्ञान आनन्दके स्वरूपको निरखकर अपने उपलब्ध ज्ञात वसुखको भी इन्द्रियनिमित्तक होनेपर भी ग्रात्मा से ही हुआ निरखना ॥२०॥ अब ज्ञान के स्वरूपका विस्तार और सुखके स्वरूपका विस्तार क्रमशः प्रवर्तमान दो स्थलोंके द्वारा कहते हैं । इनमें से पहले अतीन्द्रिय ज्ञानरूप परिणमित होनेसे केवली भगवान के सब प्रत्यक्ष है यह प्रगट करते हैं - [ खलु ] वास्तव में [ ज्ञानं परिरणममानस्य ] ज्ञानरूपसे अर्थात् केवलज्ञानरूपसे परिणमित होते हुए केवली भगवान के [ सर्वद्रव्यपर्यायाः ] सव द्रव्यपर्यायें [ प्रत्यक्षाः ] प्रत्यक्ष हैं [ सः ] वह [ तान् ] उन्हें [ श्रवग्रहपूर्वाभिः क्रियाभिः ] अवग्रहादि
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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