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________________ सहजानन्दशास्त्रमालायां स्वभावोपलम्भगम्भीरो भगवान् सिद्धः स शुद्ध एव । श्रलं वाग्विस्तरेण, सर्वमनोरथस्थानस्य मोक्षतत्त्वसाधनतत्वस्य शुद्धस्य परस्परमङ्गाङ्गिभावपरिणत भाव्यभावकत्वात्प्रत्यस्तमितस्वपरविभागो भावनमस्कारोऽस्तु ॥ २७४॥ ५१२ प्रथमा एकवचन | भषियं भणितं प्र० ए० कृ० क्रिया तस्स-षष्ठी एकवचन । तस्थं चतुर्थी एकवचन | निरुक्ति शुद्धतम इति शुद्धः ( शुध् + क्त) शुध शौचे दिवादि || २७४।। ५-- सहजानन्तज्ञानानन्द २ - जहाँ सहजशुद्धात्मस्वरूपका ऐसा एकाग्र ध्यान होता है कि ज्ञाता ज्ञेय स्वतस्व एक हो जाते हैं और स्वपरका विभाग ग्रस्त हो जाता है ऐसे ज्ञानानुभवको भावनमस्कार कहते हैं । ३- शुद्धोपयोग सर्वस्व सिद्धिका स्थान है । ४- टोत्कीर्णवत् निश्चल सहजपरमानन्दवृत्ति में स्थित श्रात्मस्वभावकी उपलब्धिसे यह शुद्ध चेतन तत्त्व गम्भीर है । मुद्रित परमचमत्कारमय निर्धारण इस शुद्ध उपयोगका ही होता है । ६ - इस मोक्षतत्त्वसाधन तत्त्वमय शुद्ध उपयोग के हो दर्शन ज्ञान स्पष्ट होता है । ७- साक्षात् मोक्षमार्गभूत श्रामण्य शुद्ध उपयोग ही होता है । ८- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रका एकत्व में वर्तनारूप परम ऐकाग्रय साक्षात् मोक्षमार्ग है। ई- निर्विकार शुद्ध चिवृत्तिस्वरूप श्रामण्य जयवन्त होश्रो । सिद्धान्त - १ - मोक्षतस्त्वसाधनतत्त्व विकसित सहजात्मस्वरूप है । दृष्टि - १ - शुद्धनिश्चयनय ( ४६ ) | प्रयोग - परभाव से विविक्त स्वयंपरिपूर्ण चित्स्वरूपके अवलम्बनसे चिच्चमात्कारमय शाश्वत स्वकीय अभिनन्दन से अभिनन्दित रहना ॥ २७४॥ o ग्रन्थकर्ता पूज्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव शिष्यजनको शास्त्र के फलके साथ जोड़ते ये शास्त्र समाप्त करते हैं [ यः ] जो [ साकारानाकारचर्यया युक्तः ] साकार - अनाकार चर्या युक्त हुआ [ एतत् ] शासन] इस शास्त्रको [बुध्यते ] जानता है, [स] वह [ लघुना कालेन ] अल्पकाल में ही [ प्रवचनसारं ] प्रवचन के सारभूत परमात्मभावको [प्राप्नोति ] प्राप्त करता है । तात्पर्य - जो अणुव्रती या महाव्रती इस उपदेशको यथार्थरूपसे जानता है वह अल्पकालमें सहजात्मस्वरूपको प्राप्त करता है । टोकार्थ - सुविशुद्धज्ञानदर्शनमात्र स्वरूप में अवस्थित परिणति में लगा होनेसे साकार अनाकार चर्यासे युक्त वर्तता हुआ जो शिष्यवर्ग स्वयं समस्त शास्त्रोंके अर्थ विस्तारसंक्षेपाers श्रुतज्ञानोपयोग पूर्वक प्रभाव द्वारा केवल श्रात्माको अनुभवता हुआ, इस उपदेशको जा नता है वह वास्तव में, स्वसंवेद्य-दिव्य ज्ञानानन्द जिसका स्वभाव है ऐसे, पहले कभी अनुभव
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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