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________________ } सहजानन्दशास्त्रमालायां स्फटिकवत् परिणामस्वभावः सन् शुभोऽशुभश्च भवति । यदा पुनः शुद्धेनारागभावेन परिण प्रत्वे । प्रातिपदिक - जीव, यदा, शुभ, अशुभ, वा, शुद्ध, तदा, हि, परिणामस्वभाव । मूलधातु- परि म प्रहृत्वे, भू सत्तायां । उभयपदविवरण जीवो जीवः प्रथमा एकवचन । परिणमदि परिणमति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन किया। जदा यदा तदा वा हि-अव्यय । सुहेण शुभेन असुहेण अशुभेन १४ तात्पर्य - शुभ प्रशुभ शुद्ध परिणमनके समय जीब शुभ अशुभ तथा शुद्ध ही है । टीकार्थ -- जब यह आत्मा शुभ या अशुभ रागभावसे परिणमता है तब जपा कुसुम या तमाल पुष्पके लाल या काले रंगरूप परिणमित स्फटिकको भाँति, परिणामस्वभाव यह जीव शुभ या अशुभ होता है और जब वह शुद्ध प्ररागभाव से परिमित होता है तब शुद्ध रागपरिणत ( रंगरहित) स्फटिककी भाँति, परिणामस्वभाव होनेसे शुद्ध होता है याने उस समय प्रात्मा स्वयं ही शुद्ध है । इस प्रकार जीवका शुभत्व अशुभत्व और शुद्धत्व सिद्ध हुआ । प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि जो द्रव्य जिस काल में जिस मय होता है । अत्र आत्मा के विषय में उसीका रूपसे परिणमता है वह द्रव्य उस कालमें उस स्पष्टीकरण इस गाथामें किया गया है । तथ्य प्रकाश-- - ( १ ) जीव परिणमता है इस कथनसे स्पष्ट है कि जीव नित्य है, किन्तु अपरिणामी कूटस्थ नित्य नहीं है । (२) जीव परिणमता है इस कथनसे स्पष्ट है कि जीव पूर्व पर्याय को छोड़कर नवीन पर्याय में प्राता रहता है । (३) जीव परिणमता है इस कथन से स्पष्ट है कि जीव जिस पर्यायरूप परिणमता है उस समय वह उस पर्यायमय है । (४) जीव जब शुभभावसे परिणमता है तब जीव शुभ है । (५) जब जीव प्रशुभभाव से परिमता है तब वह अशुभ है । ( ६ ) जब जीव शुद्धभावसे परिणमता है तब जीव शुद्ध है । ( ७ ) जब जीव शुभ, अशुभ या शुद्धभावसे परिणमता है तब यह जीव स्वयं शुभ, अशुभ या शुद्ध है, अन्य किसीने शुभ, अशुभ या शुद्ध नहीं किया । (८) जीवका शुभ अशुभ होना कर्मदशाका निमित्त पाकर होता है, क्योंकि शुभ अशुभ भाव जीवका स्वभावानुरूप परिणमन नहीं है । ( ६ ) जीवका शुद्ध परिणमन होना उपाधिके प्रभाव में अर्थात् जीवकी केवलतामें हुई स्थिति है, क्योंकि शुद्धभाव जीवका स्वभावानुरूप परिणमन है । (१०) लाल पीला उपाधिके सान्निध्य में ही स्फटिकमरिण लाल पीला रूप परिणमता है ऐसे ही उपाधिकर्मदशा के सान्निध्य में जीव शुभ अशुभ भावरूप परिणमता है । ( ११ ) लाल पीला उपाधिके न रहनेपर ( दूर होनेपर ) स्फटिक मणि स्वभावानुरूप स्वच्छ परिणमता है, ऐसे ही कर्मउपाधिके न रहने पर जीव स्वभावानुरूप शुद्ध स्वच्छ ज्ञानादिरूप परिणमता है । ( १२ ) प्रथम, द्वितीय, तृतीय गुणस्थानों में उत्तरोत्तर घटता हुआ शुभोपयोग है । (१३) चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ गुणस्थान में
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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