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________________ PM प्रवचनसार..सप्तदशाङ्गी टीका ममात्मन्येव वर्तमानेनात्मीयमात्मानं राकलनिकालकलितम्रोव्यं न जानामि । एवं पृथक्त्यवृत्तस्वलक्षण व्यमन्यदपहाय तस्मिन्नेव च वर्तमानैः सवालत्रिकालालितनाव्यं द्रध्यमाकाश धर्ममधर्म कालं पुद्गलमात्मान्तरं च निश्चिनोमि । ततो नाहमाकाणं न धमो नाधो न च कालो न पुद्गली नात्मान्तरं च भवति, यतोऽमीये कापवरकप्रबोधितानेक दीपप्रकाणेस्बिर संभुयावस्थितेष्वपि मच्चतन्य स्वरूपादप्रतमेव मां पृथगवगमयति । एवमस्य निश्चित स्वपरवि. वेकस्यात्मनो न खलु विकार कारिणो मोहा रस्ता प्रादुर्भूतिः स्यात् ।। ६० । गीत ॥ ए. । पुरशेहि गुण:-तृतीया । आप आमान पर णम्मान मिाह द्वितीया क । दन्वेसु द्रव्येष-सप्तमी बहु । अध्यण आरमन टी एमः । अप्पा आत्मा--प्र. o | अभिगय अभिगच्छतुआज्ञा अन्य पुरुष एकवचन किया | इच्छद्र अति-वर्तमान अन्य पुरुष एक किया। निवित ... अयरतीति जिनः । समास-जिनस्य मार्ग: जिन मार्गतिमात् जिनमागांत् ।। टीकार्थ- इस जगत में प्रागम में कथित अनन्तगणों में से किन्हीं गानों के द्वारा-.-..जो पारण अन्य के साथ योगरहित होनेसे असाधारशाता धारण करके विशेषपने को प्राम हुए हैं, ऐसे जिन्हीं गुणों के द्वारा मोहका क्षय करने में प्रखर है बुद्धि जिनकी ऐसे स्वरूपज्ञानी पुरुष अनन्त द्रव्य परम्परामें स्व-परके विवेकको प्राप्त करें। स्पष्टीकरण-- सत् और अकारण होनेसे स्वतः सिद्ध अन्तर्मुख और बहिर्मुख प्रकाश बाला होने से स्व-परका ज्ञायक- ऐसा जो यह मेर साध सम्बन्ध वाला मेरा चैतन्य है तथा जो समानजातीय अथवा असमान जातीय अन्य द्रव्यको छोडकर मेरे प्रात्मामें ही वर्तता है, उसके द्वारा मैं अपने प्रात्माको सकल त्रिकाल में धनत्व या धारक द्रव्य जानता हूं। इस प्रकार अन्य द्रव्यको छोड़कर उसी द्रव्य में वर्तमान पृथक रूपसे रहे स्वलक्षणों द्वारा प्राकाश, धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और अन्य प्रात्माको सकल विकालमें ध्र बत्वधारक द्रव्य के रूप में निश्चित करता है। इस कारण मैं नाकाज़ नहीं हूं, धर्म नहीं हूं, अधर्म नहीं हूं, काल नहीं हूँ, पुद्गल नहीं हूं और प्रात्मान्तर नहीं हूं; क्योंकि पाक फमरेमें जलाये गये अनेक दोपकोंके प्रकाशको तरह इकट्ठे होकर रहते हुए भी इन द्रव्यों में मेरा चैतन्य निजस्वरूपरो अच्युत ही रहता हुग्रा मुझे पृथक् बताता है । इस प्रकार जिसने स्व-परका विवेक निश्चित किया है ऐसे आत्माके विकारकारी मोहांकुरका प्रादुर्भाव नहीं होता। : प्रसङ्गविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें स्वपरविभागको सिद्धिका प्रयत्न करने की प्रेरणा दी गई थी। अब इस गाथामें अगमसे स्वपरविवेकसिद्धि करने का कर्तव्य बताया है। : तथ्यप्रकाश---(१) आगममें अनन्त गुरगोंका वर्णन है। (२) अनन्त गुरगों में कई गुग ऐसे हैं जो अन्ययोगका व्यवच्छेदक होनेसे असाधारण हैं 1 (३) असाधारण गुणोंके योग Diwane aim Page । BEEEEEES.58 EDERERATERIA
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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