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________________ ४५६ सहजानन्दशास्त्रमालायां योगपद्येऽपि मनाङ्मोहमलोपलिप्तत्वात् यदा शरीरादिमूछो परक्ततया निरुपरागोपयोगपरिणतं कृत्वा ज्ञानात्मानमात्मानं नानुभवति तदा तावन्मात्रमोहमलवालङ्कको लिकाकीलितः कर्मभिरवि. मुच्यमानो न सिद्धयति । अत आत्मज्ञानशून्यमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यमप्यकिचि. स्करमेव ।।२३६॥ प्रमाणं-क्रियाविशेषण । बा जदि यदि ण न वि अपि-अव्यय । मुच्छा मूर्छा सव्वागमधरो सर्वागमधरःप्रथमा एकवचन । देहादिएषु देहादिकेषु-सप्तमी बहुवचन । जस्स यस्य-षष्ठी एक० । विज्जदि विद्यते लाद लभते-बर्त० अन्य० एक० क्रिया । सो सः-प्रथमा एक० । सिद्धि-द्वितीया एकवचन। निरुक्तिप्रमीयते अनेन इति प्रमाण (प्र मा + ल्युट) प्र मा माने अदादि । समास-सर्वश्चासौ आगमश्चेति सर्वागमः सर्वागमं धरतीति सर्वागमधरः ॥२३६।। [सिद्धि न लभते] सिद्धिको प्राप्त नहीं होता। तात्पर्य--देहादिकमें जिसके मूर्छा है वह कितना भी आगमका जानकार हो उसका मोक्ष नहीं होता। टीकार्थ-सकल आगमके सारको हस्तामलकवत् करनेसे भूत-वर्तमान भावो स्वोचित पर्यायोंके साथ अशेष द्रव्यसमूहको जाननेवाले आत्माको जानता हुअा, श्रद्धान करता हुआ और संयमित करता हुमा पुरुष प्रागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्वको युगपत्ता होनेपर भी, यदि वह किंचिदमात्र भी मोहमलसे लिप्त होनेसे शरीरादिके प्रति मूच्र्छासे उपरक्त रहनेसे, निरुपराग उपयोगमें परिणत करके ज्ञानात्मक प्रात्माका अनुभव नहीं करता, तो वह पुरुष मात्र उतने मोहमलकलंकारूप कोलेके साथ बंधे हुये कर्मोंसे न छूटता हुप्रा सिद्ध नहीं होता । अतः प्रात्मज्ञानशून्य प्रागमज्ञान-तत्वार्थश्रद्धान-संयतत्वको युगपत्ता भी अकिचित्कर ही है। प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें आत्मज्ञानको मोक्षमार्ग में साधकतम बताया था । अब इस गाथामें बताया गया है कि यदि कोई आत्मज्ञानसे शून्य है तो उसके आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान व संयम तीनों हों तो भी उन तीनोंको युगपत्ता अकिंचित्कर है । तथ्यप्रकाश-(१) अविकाररूप उपयोग करता हुआ कोई भव्य ज्ञानस्वरूप प्रात्मा का अनुभव करता है वहीं कोसे युक्त होता हुआ सिद्ध होता है । (२) कोई पुरुष परमात्मा के स्वरूपको जाने, माने व संयम भी पाले तो भी यदि वह ज्ञानस्वरूप अपने आपके अनुभव से शून्य है, रचमात्र भी मोह मूछ से उपयोग लिप्त है तो कर्मोसे मुक्त हो नहीं हो सकता। सिद्धि पानेकी तो कथा ही दूर है। (३) आत्मज्ञानरहित आगमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान व संयम ये तीनों हों तो भी इनसे सिद्धि नहीं होगी । (४) ज्ञानस्वरूप अपने प्रापका ज्ञानमात्ररूपमें ज्ञानसे अनुभवना ज्ञानानुभव है । (५) ज्ञानानुभव बिना सिद्धि नहीं हो सकती।
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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