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सहजानन्दशास्त्रमालायां
प्रथाविरिछमसामायिकाधिरू होऽपि श्रमणः कदाचिच्छेदोपस्थापनमहतीत्युपदिशति
बदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥२०८॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरे हिं पण्णात्ता । तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि ॥२०६॥ व्रत समिति अक्षरोधन, अचेल प्रस्नान लोच आवश्यक । भूशयन अदंतधसन स्थित्तिभोजन एकभुक्ति तथा ॥२०६॥ अट्ठावीस मूल गुरण, श्रमरगोंके ये जिनेशने भाषे ! -
उनमें प्रमत साधू, छेलोपस्थापना करता ॥२१०॥ व्रतसमितीन्द्रियरोधो लोचावश्यकमचेलमस्नानम् । क्षितिशयनमदत धावनं स्थितिभोजनमेकभक्तं च ।२०६॥ एते खलु मुलगुणा: श्रमणानां जिनवरैः प्रज्ञप्ताः । तेषु प्रमत्तः श्रमण: छेदोपस्थापको भवति ॥ २०६ ।।
सर्वसाक्द्य योगप्रत्याख्यानलक्षणकमहावतव्यक्तिवशेन हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहविरत्या त्मकं पञ्चतयं व्रतं तत्परिकरश्च पञ्चतयी समितिः पञ्चतय इन्द्रियरोधो लोचः षट्तयमाव
नामसंज्ञ-. बदसमिदिदियरोध लोचाबस्सय अचेल अण्हाण खिदिसयण अदंत वण णिदिमोयण एमभत्त घ एत खलु मूलगुण समण जिणवर पणन त पमत्त समण छेदोवट्ठावग । धातुसंज्ञ-हो सत्तायां । प्रातिपविक्र-व्रतसमितीन्द्रियरोध लोचावश्यक अचेल अस्तान क्षितिशयन अदन्तधावण स्थितिभोजन एकभक्त ने एतत् खलु मूलगुण श्रमण जितवर प्रजप्त तत् प्रमत्त श्रमण छेदोपस्थापक ! मूलधातु---भू सत्तायां।
दृष्टि-१-- उपाधिनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२१)। २- शुद्ध भावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब)।
प्रयोग--यथाख्यात प्रात्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिये यथाजातरूपधारी होकर यथाजात सहजात्मस्वरूपकी सतत अभेदोपासनाका पौरुष होना ।।२०७॥
अब अविच्छिन्न सामायिक संयममें आरूढ़ हुना होनेपर भी श्रमण कदाचित् छेदोपस्थापनाके योग्य है, यह कहते हैं.---- [व्रतसमितीन्द्रियरोधः] व्रत, समिति, इन्द्रियरोध, [लो. चावश्यकम्] लोच, अावश्यक, [अचेलम्] अचेल, [स्नानं] अस्नान, [क्षितिशयनम्] भूमि शयन, [अदंतधावनं] अदंतधावन, [स्थितिभोजनस्] खड़े खड़े भोजन [च] और [एकभक्त] एक बार पाहार [एते] ये [खलु] वास्तवमें [श्रमणानां मूलगुणाः] श्रमणोके मूल गुण [जिनवरैः प्रज्ञप्ता:] जिनवरोंके द्वारा कहे गये है। [तेषु] उनमें [प्रमत्ता] प्रमत्त होता हुआ धमरणः] श्रमण [छेदोपस्थापका भवति छेदोपस्थापक होता है ।
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