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________________ सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ द्रव्यबन्धस्य भावबन्धहेतुकत्यभुज्जीवति---- सपदेसो सो अप्पा तेसु पदेसेसु पुग्गला काया। पविसंति जहाजोग्गं चिट्ठति य जंति बन्झति ॥१७॥ सप्रदेश वह प्रात्मा, पुद्गल विधि काय जन प्रदेशोंमें । प्रविशते ठहरते वे, आते हैं और बँधते वे ॥ १७८ ॥ सप्रदेश: स आत्मह तेषु प्रदेशेषु पुद्गला: काया: । प्रविशन्ति यथायोग्यं तिष्टन्ति न यान्ति बध्यन्ते ।।१७८| ___ अयमात्मा लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशत्वात्सप्रदेशः अथ तेषु तस्य प्रदेशेषु कायनाङ्मनोवर्गरणालम्बनः परिस्पन्दो यथा भवति तथा कर्मपुद्गलकायाः स्वयमेव परिस्पन्दवन्तः प्रवि. शन्त्यपि तिष्ठन्त्यपि गच्छन्त्यपि च । अस्ति चेज्जीवस्य मोहरागद्वेषरूपो भावो बध्यतेऽपि च । ततोऽवधार्यते द्रव्यबन्धस्य भावबन्धो हेतुः ॥१७॥ नामसंज्ञ-सपदेस त बम्पन पदेस पुग्गल काय जहाजोगं य । धातुसंज–प विस प्रवेशने, चिट्ठ गतिनिवृत्तौ तृतीयगणी, जा गती, बंध बन्धने । प्रातिपदिक-सप्रदेश सत् आत्मन् तत् प्रदेश पुद्गल काय यथायोग्य च । मूलधातु- प्रविश प्रवेशे, ष्ठा गतिनिवृत्तौ, या प्रापणे, बन्ध बन्धने' । उभयपदविवरण--- सपदेसो सप्रदेशः सो सः अप्पा आत्मा--प्रथमा एक । तेसु तेषु पदेसेसु प्रदेशेषु-सप्तमी बहु । पुमाला पुद्गलाः काया कायाः-प्रथमा बहुवचन ! पविसंति प्रविशन्ति चिट्ठति तिष्ठति जति यान्ति-वर्तमान अन्य बहु० क्रिया । बझति बध्यन्ते-वर्तमान अन्य बहु० भावकर्मप्रक्रिया । जहाजोग्ग यथायोग्यं-क्रियाविशे. पण अव्यय । निक्ति -~-प्रकृष्टेल देशनं प्रदेशः, येन प्रकारेण इति यथा (यत् +थाल सद्धित), अतति सततं. गच्छति जानाति इति आत्मा । समास-प्रदेशेन सहितः सप्रदेशः ।।१७।। भी करते हैं, रहते भी हैं, और जाते भी हैं। और यदि जीवके मोह राग-द्वेषरूप भाव हों तो बंधते भी हैं । इसलिये निश्चित होता है कि द्रव्यबंधका हेतु भावबंध है। प्रसंगविवरण ----- अनन्तरपूर्व गाथामें भावबंध, द्रव्यबंध व उभयबंधका स्वरूप बताया गया था । अब इस गाथामें द्रव्यबन्धकी भावबन्धहेतुकता प्रकट की गई है। तथ्यप्रकाश-१- प्रत्येक जीव लोकाकाशप्रदेशप्रमाणा गणनामें असंख्यातप्रदेशी है। २- जीवप्रदेशों में मन वचन कायकी वर्गरणाके अवलम्बन वाला जैसे ही योगपरित्यक्त होता है वैसे ही पुद्गलकर्मवर्गणायें स्वयं ही प्रवेश करती हैं, बंधती हैं, ठहरती हैं और जाती भी. हैं । ३- योगके समय यदि मोह राग द्वेषरूप भाव होता है तो पुद्गलकर्मबर्गणायें स्वयं ही * बंध जाती हैं । ४- उत्तप्रक्रिया द्रव्यबंधका निमित्त भावबन्ध सूचित किया गया है । ५-- .. कार्माणवर्गणावों में कर्मत्वका प्रवेश होना प्रदेशबंध है। ६- कर्मप्रदेशोंमें प्रकृतित्वका बँधना प्रकृतिबन्ध है । ७- कर्मवर्गणावोंका ठहरना स्थितिबन्ध है । - फल देकर जाना नियंत utum". militmendmHRIMARY
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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