SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 505
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका ४६१ प्रथाविपरीत फलकाररणा विपरीतकारणसमुपासनप्रवृति सामान्यविशेषतो विधेयतया सूत्रद्वैतेनोपदर्शयति--- दि पदं वत्थु भुट्टारापधाराकिरिया हिं । दु तदो गुणादो विसेसिदव्वो त्ति उवदेसी ॥२६१॥ सत्पात्रको तिरखकर उत्थानादिक विनय सहित वर्षो । फिर गुरके श्रतिशयसे सुविशेषित कर जिनाशा यह ॥२६२॥ दृष्ट्वा प्रकृतं वस्त्वभ्युत्थानप्रधानक्रियाभिः । वर्ततां ततो गुगाद्विशेषितव्य इति उपदेश: ।। २६१ ।। श्रमणानामात्मविशुद्धिहतो प्रकृते वस्तुनि तदनुकूलक्रियाप्रवृत्त्या गुणातिशयाधानमप्र नामसंज्ञगद व अवाणपधाण किरिया तदो गुण विसेदिव्य त्ति जबदेस । धातुसंज्ञ - दंस दर्शने, दत्त बर्तने । प्रातिपदिक- प्रकृत वस्तु अभ्युत्थानप्रधान क्रिया तस: गुण विशेषितव्य इति उपदेश । तथ्यप्रकाश - ( १ ) मोह द्वेष अप्रयास्त रागका उच्छेद हो जानेसे अविपरीत कारण भूत श्रम शुभपयोग रहित ही होते हैं । (२) शुभयोग भी होते मुख्यतया शुद्धोपयोगी होते । ( ३ ) कपाय दूर होनेसे भ्रमण शुद्धोपयोगी होते । ( ४ ) कदाचित् प्रशस्त रागका विपाक होनेसे श्रमण शुभोग्योगी होते हैं । ( ५ ) सुमार्गभागी श्रम स्वयं मोक्षपात्र हैं अतः उनकी संगतिमें जीव संसार पार हो जाते हैं । ( ६ ) सुमार्गभागी श्रमरणोंकी भक्ति में प्रवृत्त शुभोपयोगी विशिष्ट पुण्यप व होते हैं । (७) आत्मस्वभाव के अनुरूप विकसित होने वाले भव्यात्मा स्वयंके लिये विपरीत फलके उपादान कारण होते हैं । (८) आत्मस्वभाव के अनुरूप विकसित होने वाले भव्यात्मा अन्य सावर्मी भक्तोंके लिये अविपरीत आश्रयभूत कारण होते हैं । सिद्धान्त - (१) सुमार्गभागी श्रमण श्रविपरीत फलके प्रविपरीत कारण हैं । दृष्टि- १ - उपादानदृष्टि (४९), आश्रयभूतकारणदृष्टि (६१) प्रयोग - शुद्ध प्रन्तस्तत्त्वकी प्रतीति रखते हुए मन्तस्तत्वमें रत न हो रहेको स्थिति में अशुभोपयोगरहित सुमार्गगामी श्रमणको भक्ति सेवा करना ।। २६० ॥ - अब अविपरीत फलके कारणभूत 'अविपरीत कारण' की उपासनारूप प्रवृत्ति सामान्यतया और विशेषतया करने योग्य है, यह दो सूत्रों द्वारा बतलाते हैं [ प्रकृतं वस्तु ] प्रकृत वस्तुको [दृष्ट्वा ] देखकर [अभ्युत्थानप्रधान क्रियाभिः ] अभ्युत्थान यादि क्रियायोंसे [वर्तताम्] श्रमण प्रवर्तें [ततः ] फिर [ गुणात् ] गुणानुसार [विशेषितव्यः ] विशेषित करें-[इति उपदेशः ] ऐसा उपदेश है ।
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy