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________________ ३२६ सहजानन्दशास्त्रमालायां धर्मध्वजानां ग्रहणंयस्येति बरिहङ्गायतिलिंगाभावस्य । म लिंग गुणो ग्रहणमर्थावबोधो यस्येति । गुणविशेषानालीदह द्रव्यत्वस्य । न लिंगं पर्यायो ग्रहणमर्थावबोधविशेषो यस्येति प्रयिविशेरस्यते यः स रसः, व्यंजतेस्म असी व्यक्तः, लिङ्गन लिङ्गः । समास- देशना गुण: यस्मिन् सः चे० त०, है। इस प्रकार 'ग्रात्मा पाखण्डियों के प्रसिद्ध साधनरूप प्राकार वाला लोकव्यापिना नहीं है। इस अर्थकी जानकारी होती है । (१६) लिंगोंका, अर्थात् स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदोंका ग्रहण नहीं है जिसके बह अलिगग्रहा है। इस प्रकार 'स्मा द्रव्य से तथा भावस स्त्री, पुरुष तथा नपुसक नहीं है, इस अर्थको जानकारी होती है । (१७) लिगों का अर्थात् धर्मचिह्नोंका ग्रहण जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'प्रात्मा के बहिरंग यतिलिंगोंका अभाव है' इस अर्थकी जानकारी होती है । (१५) लिंग अर्थात् गुणग्रहण अर्थात् अर्थावबोध जिसके नहीं है सो अलिगग्रहण है; इस प्रकार प्रात्मा गुमा विशेषसे आलिगिल न होने वाला शुद्ध द्रव्य है' इस अर्थकी जानकारी होती है । (१६) लिग अर्थात् पर्यायग्रहण अर्थात् अर्थावबोधन विशेष जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है। इस प्रकार 'आत्मा पर्याय विशेषसे प्रालिगित न । होने वाला शुद्ध द्रव्य है' इस अर्थकी जानकारी होती है । (२०) लिंग अर्थात् प्रत्यभिज्ञानका कारगारूप ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध सामान्य जिसके नही है वह अलिगग्रहण है; इस प्रकार मात्माके द्रव्यसे अनालिङ्गित शुद्ध पर्यायपनेकी जानकारी होती है। प्रसंगविवरण-----अनन्तरपूर्व गाथामें प्रात्माके शरीरत्वका अभाव बताया गया था। तब इस पर यह जिज्ञासा हो सकती है। फिर जीवका ग्यसाधारण स्वरूप क्या है जिससे जीवको सर्वपर द्रव्योंसे विविक्त जाना जा सके, इसी जिज्ञासाका समाधान इस गाथामें किया गया है। तथ्यप्रकाश----१- ग्रात्मा अरस है, क्योंकि प्रात्मामें रसगुण का अभाव है। २प्रात्मा अरूप है, क्योंकि आत्मामें रूप गुणका अभाव है। ३.मात्मा अगंव है, क्योंकि प्रात्मा । में गंध गुणका अभाव है। ४- प्रात्मा अध्यक्त है अर्थात् अस्पर्श है, क्योंकि प्रात्मामें स्पर्श गुण नहीं है और न पिण्ड रूप होकर कठोरादि स्पर्श व्यक्तियां संभव हैं । ५- प्रात्मा अशब्दः है, क्योंकि आत्मामें शब्दपर्यायको असंभवता है । ६- इन्द्रियों (लिङ्गों द्वारा ग्राहकरूपमें भी प्रात्माका ग्रहण न होनेसे आत्माका अतीन्द्रियज्ञानमयपना ज्ञात होता है । ७- इन्द्रियोंके (लिङ्गोंक) द्वारा ग्राह्यरूपमें भी आत्माका ग्रहण न होनेसे प्रात्माका इन्द्रियप्रत्यक्षका विषयभूत नहीं है यह ज्ञात होता है । ८-- इन्द्रियगम्य लिङ्गसे (साधनसे) अात्माका ग्रहण न होने से ''यह आत्मा इन्द्रिय प्रत्यक्षपूर्वक अनुमानका विषयभूत नहीं है" यह ज्ञात होता है । ६
SR No.090384
Book TitlePravachansara Saptadashangi Tika
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages528
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size22 MB
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