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सहजानन्दशास्त्रमालाया
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तन्मुलायात्मतत्त्वोपलम्भाय च, यत्प्रसादाग्रन्यितो झगित्थवासंसारबद्धो मोहग्रन्थिः । स्वस्ति च परमवीतरागचारित्रात्मने शुद्धोपयोगाय, बत्प्रसादादयमात्मा स्वयमेव धमों भूत: । प्रात्मा धर्मः स्ययमिति भवन् प्राप्य शुद्धोपयोग नित्यानन्दप्रसरसरसे ज्ञानतत्वे निलीय । प्राप्स्यत्युच्चरविचलतया नि:प्रकम्पप्रकाशा स्फूर्जज्योतिः सहजविलसद्रनदीपस्य लक्ष्मीम् ।।५।। निश्चित्यात्मन्यधिकृतमिति ज्ञानतत्त्वं यथावत् तत्सिद्धयर्थ प्रणमाविषयं ज्ञेयतत्त्वं बुभुत्सुः । सर्वानर्थान कलयति गुरागद्रव्यपर्याययुक्त्या प्रादुर्भतिर्न भवति यथा जातु मोहांकुरस्य ।।६।६२॥
अति प्रवचनसारवृत्तौ तत्त्वदीपिकायां "श्रीमदतचन्द्रमूरि' विरचितायां ज्ञानसत्त्वज्ञापनो' नाम । प्रथमः श्रुतस्कन्धः समाप्त: ।। गति निवृती । उभयपदविवरण--जो य: मिदमोहदिदी निहतमोहष्टि: आगमकुसलो आगमकुशलः अब्भुदिवो अम्युत्थितः महप्पा महात्मा धम्मो धर्मः समणो श्रमणः--प्रथमा एक विरागचरिअम्मि विरागः
न-मातमी एकवचन । बिसेसियो विज्ञपिता-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया । निरुक्ति-श्य अनया सा हरिट प्रियते ज्ञानिभिः इतिः धर्मः । समास-आगमे कुशल: आगमकुशलः, निहता मोहदृष्टि: येन सः नि विरागं च तत् चरितं चेति विपरित तस्मिन् वि० ।। ६२॥ बहिमोह दृष्टि ही है । (३) बहिर्मोहद्दष्टि प्रागमकौशल पात्मज्ञानसे नष्ट हो जाती है । (४) अन्वर स्वभावदृष्टिसे नष्ट हुई बहिमोहदृष्टि पुनः नहीं पा सकती। (५) मोहदृष्टि नष्ट होनेसे योत राग चारित्ररूपमें स्पष्ट प्रकट यह आत्मा स्वयं धर्मरूप है । (६) धर्ममय यह प्रात्मा निरावरण होनेसे नित्य पकम्प रहता है । (७) कल्याणका प्रारम्भक जैनेन्द्र शब्दब्रह्माकी (भागम की) उपासना है। (८) आगमकी उपासनाके प्रसादसे प्रात्मतत्वको उपलब्धि होती है । (8) प्रारमलस्वकी उपलब्धिके प्रसादसे अनादिबद्ध मोहकी गांठ नष्ट होती है। (१०) मोहकी गांठ नष्ट होनेपर परमवीतरागचारित्रात्मक शुद्धोपयोग होता है । (११) शुद्धोपयोगके प्रसाद से यह प्रात्मा स्वयं धर्मरूप प्रकट होता है ।
सिद्धान्त --- (१) स्वभावदृष्टिसे स्वभावका विकास होता है । दृष्टि-१-- स्वभावनय (१७६) ।
प्रयोग—शान्त धर्ममय होने के लिये प्रागमाभ्यास द्वारा प्रात्मतत्त्वकी उपलब्धि करके । प्रस्त्र र स्वभावदृष्टिके बलसे अपनेको अविकार अनुभवना ॥१२॥
इस प्रकार श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणोत श्रीप्रवचनसारशास्त्र व श्रीमदमृतचंद्राचार्यदेवविरचित 'तत्त्वदीपिका' नामक टोकापर सहजानन्द सप्तदशाङ्गी टीका समाप्त ।।
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