Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 527
________________ प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका अथ शिष्यजनं शास्त्रफलेन याजयन शास्त्रं समापयति---- बुज्झदि सासणमेय सागारागारचरियया जुत्तो। जो सो पश्यासारं लहणा कालेण पप्पोदि ॥२७॥ जाने इस शासनको, साकार अनाकार चरित युत जो। वह स्वल्पकाल में हो, प्रवचनके सारको पाता ॥२७५।। बुध्यते शासन मेतत साकारानाकार श्वयंया युक्तः । यः स प्रवचनमार लघुना कालेन प्राप्नोति ।। २७५ ।। यो हि नाम विशुद्धज्ञानदर्शनमात्रस्वरूपव्यबस्थितवृत्तिसमाहितत्वात् साकारानाकारचर्यया यक्तः सन् शिष्यवर्गः स्वयं समस्तशास्त्रार्थविस्तर पंक्षेपात्मकश्रुतज्ञानोपयोगपूर्वकानुभावेन केवलमात्मानमनुभवन शासन मेतबुध्यते स खलु निरवधित्रिसमयप्रवाहावस्थायित्वेन सकलार्थ नामसंज-सासण एत सागारणगारचरिया जुत्त जत पवयणसार लहु काल । धातुसंज्ञ--बुझ अब गमने, ५ अप्प अर्पयो । प्रातिपदिक----शासन एतत् साकारानाकारचर्या युक्त यत् तत् प्रवचनसार लघु काल । मूलधातु-बुध अवगमने, आम्ल व्याप्तौ । उभयपदविवरण-बुज्झदि बुध्यते पप्पोदि प्राप्नोतिवर्तः अन्य एफ० क्रिया सासणं शासनं एय एतत् पदयणसार प्रवचनसारं-द्वितीया एकवचन । सागारणगारचरियथा साकारालाकारचर्यया-तृतीया एकवचन । जुत्तो युक्तः जो यः सो स:-प्रथमा एकः । नहीं किय गये, भगवान प्रात्माको पाता है---जो कि (जो प्रात्मा) तीनों कालके निरवधि प्रवाहमें अब स्थायो होनेसे सकल पदार्थोंके समूहात्मक प्रबधनका सारभूत शाश्वत सत्यार्थ स्वसंवेद्य दिव्य ज्ञानानन्द है स्वभाव जिसका ऐसे अननुभूतपूर्व भगवान स्वात्माको प्राप्त करता है। प्रसंगविवरण– अनन्तरपूर्वी गाथामें मोक्षतत्त्वसाधनतत्वका अभिनन्दन किया था । अब इस गाथामें शिष्यजनको पाास्त्रफलसे योजित करते हुए शास्त्रका समापन किया गया है । तथ्यप्रकाश-.. १-जो शिष्य श्रमण साकार अनाकारचर्यासे युक्त होता हुमा केवल प्रात्मतत्त्वको अनुभवता हुमा इस शासन (उपदेश) को जानता है मानता है वह अल्पकालमें हो प्रवचनके सारभूत भगवान अात्माको प्राप्त होता है। २. सुविशुद्ध ज्ञानमात्र स्वरूपमें व्यवस्थित वृत्तिसे युक्त होना साकारचर्या है । ३-सुविशुद्ध दर्शनमात्रस्वरूपमें व्यवस्थित वृत्ति से युक्त होना अनाकारचर्या है । ४- व्यवहारचारित्र साकार चर्या है। ५-- निश्चयचारित्र अनाकारचर्या है । ६- गृहस्थाचार साकारचर्या है । ७--- श्रमणाचार अनाकार चर्या है । ८समस्त शास्त्रोंके प्रर्थके संक्षेपविस्तारात्मक श्रृतज्ञान के उपयोगपूर्वक ज्ञानानुभावसे केवल प्रात्मा का अनुभवन होना ही वास्तव मे शासनका बोध कहलाता है । 8- सहजात्मस्वरूपसवेदनसे

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