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सहजानन्दशास्त्रमालायां भगवन्तः शुद्धा एवासंसारघटितविकटकर्मकवाटविघटनपटीयसाध्यबसायेन प्रकटोक्रियमाणाव. दाना मोक्षतस्वसाधनतत्त्वमवबुध्यताम् ॥२७३।। अवसत्ता अवसरता: सुद्धा शुद्धा:-प्रथमा बहुवचन । पिहिता निर्दिष्टा:-प्रशमा बह० कृदन्त क्रिया । निरुक्ति- सम् अंचति अचनं वा सम्यक (सम अंचि-+क्विन् सामि आदेश: नलोपः) अंन्यु गति पुजनयोः भ्वा. दि । समास- विदिताः पदार्था यस्ते इति विदिलपदार्थाः ॥२७॥ प्राप्त नहीं होते हुए सकल-महिमावान भगवन्त 'शुद्धोंको हो मोक्षतत्त्वका साधन तत्त्व जानना। क्योंकि वे अनादि संसार से रचित विकट कर्मकपाटको तोड़ने के प्रति उग्र प्रयत्नसे पराक्रम प्रगट कर रहे हैं ।
प्रसंगविवरण ----अनन्तरपूर्व गाथामें मोक्षतत्त्वका उद्घाटन किया गया था ! अब इस गाथामें मोक्षतत्वके साधनतत्त्व का उद्घाटन किया गया है।
तथ्यप्रकाश.---- १ -- शुद्धोपयोगी महाश्रमण मोक्षतत्वके साधनतत्त्व हैं । २-महाश्रमण अनेकान्तकलित समस्त जातृतत्त्व व ज्ञेयतत्त्वके यथार्थ ज्ञाता हैं । ३-- महाश्रमण समस्त बहिरंग अन्तरंग परिग्रहके संगका परित्याग कर देनेसे अन्तरङ्गमें अनन्तशक्तिमय चैतन्यसे तेजस्वी विकासमान प्रात्मतत्त्वस्वरूप हैं ! ४–महाश्रमण स्वरूपगुप्त होने से प्रशान्त अन्तस्तत्ववृत्ति वाले होनेसे विषयोंमें रंच भी प्रासक्त नहीं हैं । ५-चैतन्यचमत्कारकी समस्त महिमा दाले शुद्धोपयोगी महाश्रमण मोक्षतत्त्वके साधनतत्व हैं।
__ सिद्धान्त-१- मोक्षतत्त्वसाधनतत्त्वमय महाश्रमण स्वरूपसे प्रकट स्वतंत्रचिद्विलास को अनुभवते हैं।
___दृष्टि--१-अनीश्वरनय (१८६), शुद्धनय (१६८, ४६), ज्ञाननय (१६४), अविकल्पनय (१६२)।
प्रयोग-शाश्वत शुद्ध वर्तनेके लिये सम्यक् तत्त्वज्ञान पाकर अन्तर्बाह्यपरिग्रहको त्यागकर विषयोंसे विरक्त हो शुद्ध अन्तस्तत्त्वका ध्यान धरना ॥२७३।।
अब मोक्षतत्त्व के साधनतत्वको (शुद्धोपयोगीको) सर्व मनोरथोके स्थानपनेसे अभिनन्दन करते हैं----[शुद्धस्य] शुद्धोपयोगीके [श्रामण्यं भणितं] श्रामण्य कहा है, [च शुद्धस्य] और शुद्धोपयोगोके [दर्शनं ज्ञान] दर्शन तथा ज्ञान कहा है, और [च शुद्धस्य j शुद्धोपयोगी के [निर्वाणं] निर्माण होता है, [च सः एव] और वही शुद्ध मोक्षसाधन तत्त्व [सिद्धः] सिद्ध होता है; [तस्मै नमः] उन्हें नमस्कार हो।
तात्पर्य --- शुद्धोपयोगीके श्रामण्य दर्शन ज्ञान है व उसका ही निर्वाण होता है और