________________
५००
सहजानन्दशास्त्रमालायां
भ्रश्यन्ति ।।२६७
वचन । किरियाम् क्रियासु-सप्तमी बहुवचन । जदि यदि-अव्यय । निरुक्ति-मिथनं मिथ्या (मिथ् - क्यप् +टा) मिथ संगमने । समास- अधिका: गणाः येषु ते अधिकगुणाः, प्रभ्रष्टं चारित्रं येषां ते प्रभ्रष्टचारित्राः ।।२६॥ को अपने समान श्रमणको तरह विनय व्यवहार आचरण करता है उसके चारित्रका भी वि. नाश हो जाता है।
तथ्यप्रकाश---(१) जो. स्वयं अधिक गुरग वाला श्रमण हो और वह गुणहीन अन्य श्रमणके प्रति विनय भक्तिमें मोहवश लगे तो वह अशुभोषयुक्त होनेसे चारित्रसे भ्रष्ट हो जाता है । (२) गणहीन चारित्रहीन श्रमणके प्रति आदरका भाव अपने या प्रादि मोहके वश होता है ऐसे भावमें 'धारित्र नहीं रहता।
__ सिद्धान्त-(१) अशुद्ध भावनासे शुद्धताका विनाश होकर अशुद्धता व बद्धता चलती रहती है।
दृष्टि-१- अशुद्धभावनापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४स)।
प्रयोग- प्रात्मविशुद्धिके हेतु श्रद्धानज्ञानचारित्रहीन साधुजनोंकी संगति भक्ति नहीं करना ॥२६७॥
अब असत्संगको निषेध्य बतलाते हैं---[निश्चितसूत्रार्थपदः सूत्रोंके पदोंको और अर्थों को निश्चित किया है जिसने, [च] और [समितकषायः] कषायोंको समित किया है जिसने ऐसा श्रमण [तपोऽधिकः अपि] तपश्चरणमें अधिक होता हुआ भी [यदि] यदि [लौकिकजनसंसर्ग] लौकिक जनोंके संसर्गको [न त्यजति ] नहीं छोड़ता, [संयतः न भवति] तो वह संयत नहीं है।
तात्पर्य-ज्ञानी शान्त तपस्वी भी श्रमण यदि लौकिक जनोंका सम्बन्ध नहीं छोड़ता तो वह संयमी नहीं रहता।.
टोकार्थ-(१) विश्वके वाचक, 'सत्' लक्षण वाले सम्पूर्ण हो शब्दब्रह्म और उस शब्दब्रह्मके वाच्य 'सत्' लक्षण वाले सम्पूर्ण हो विश्व उन दोनोंके ज्ञेयाकार अपनेमें युगपत् गथित हो जानेसे उन दोनोंका अधिष्ठान भूल 'सत्' लक्षण वाला ज्ञातृतत्व निश्चयनय द्वारा सूत्रके पदों और अर्थोका निश्चय वाला' होनेके कारण (२) निरुपराग उपयोगके कारण समितकषाय होनेके कारण और (३) निष्कंप उपयोगका बहुशः अभ्यास करनेसे 'अधिक तप वाला' होने के कारण भलीभांति संयत हुआ भी श्रमण चूंकि अग्निकी संगतिमें रहे हुये पानी