Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 515
________________ Kximewwxxxxauwomen प्रवचन सार-सप्तदशाङ्गी टीका अथासत्संग प्रतिषेध्यत्वेन दर्शयति णिच्छिदसुत्तत्थपदो समिदकसायो तवोधिगो चावि । लोगिगजासंसग्गं गा चयदि जदि संजदो ण हर्वाद ॥२६॥ विदितसूत्रार्थपद हो, उपशान्तकषाय तथा तपोधिक भी। लौकिकसंग न तजता, यदि तो वह संयमी नहि है ॥२६८॥ निश्चितसूत्रार्थ पदः समितकमायस्तपोऽधिकश्चापि । लौकिकजनसंसर्ग न त्यति यदि संयतो न भवति । यत: सकलस्यापि विश्व वाचकस्य सल्लक्ष्मणः शब्दब्रह्मणस्तद्वाच्यस्य सकलस्यापि सल्लक्षमणोविश्वस्य च युगपदनुस्यूततदुभयज्ञेयाकारतयाधिष्ठानभूतस्य सल्लक्ष्मणो ज्ञातृतत्त्वस्य निश्चयनयानिश्चितसूत्रार्थपदत्वेन निरुपरागोपयोगत्वात् समितकषायत्वेन बहुशोऽभ्यस्तनिष्क नामसंज्ञ-- णिच्छिदसुत्तत्थपद सपिदकसाअ तयोधिग च अन्त्रि लोगिगजण संसम्ग ण जदि संजद । धातुसंज-~च्चय त्यागे, व सत्तायां । प्रातिपदिक – निश्चितसुत्रार्थपद समितकषाय तपोधिक 'ध अपिलौकिकाजलसंसर्ग न यदि संभृत न । मूलधातु-त्यज त्यागे, भू सत्तायां । उमयपदविवरण---णिछिदसुत्त। स्थपदो निश्चितस्त्रार्थादः समिदकसाओ समितकषायः तवोधिगो तपोधिकः संजदो संयत:-प्रथमा एकवचन । लोगिगजणांसमा लौकिकजनांसर्ग-द्वितीया एकवचन । च अबि अपि ण न जदि यदि-अश्यय । को भांति उसे विकार अवश्यंभावी होनेसे लौकिक संगसे असंयत ही होता है, इस कारणा लौकिक संग सर्वथा निषेध्य ही है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि श्रामण्यसे अधिक गुण वाल होकर यदि गुणहीन साधुका समानकी तरह विनयादि आचरण करे तो वह चारित्रभ्रष्ट हो जाता है । अब इस गाथामें असत्संग करनेका निषेध किया गया है । तथ्यप्रकाश-१-- यदि कोई श्रमण लौकिक असंयमी जनोंका संसर्ग नहीं छोड़ता है तो वह भी असंयत हो जाता है । २- जल शीतल होता है, किन्तु वह अग्निकी संगतिको प्राप्त है तो वह जल भी संतापकारी हो जाता है। ३- श्रमण चाहे सूत्रार्थपदों का ज्ञानी होथ कषायका शमन करने वाला हो, तपस्यामें भी अधिक हो तो भी लौकिकजनसंसर्गमें रहनेसे वह असंयत हो जाता है। ४- सूत्र समस्त विश्वका वाचक सत् शब्दब्रह्म है। ५- प्र' शब्दब्रह्म द्वारा वाच्य समस्त सत् पदार्थ हैं । ६- वोचक वाच्य दोनोंके ज्ञेयाकार रूपसे अधिष्ठाता सत् ज्ञातृतत्त्व है । ७-शब्दब्रह्म, अर्थब्रह्म, ज्ञातृब्रह्म तीनोंका ज्ञानी श्रमण निश्चित्तसूत्रा. पद कहलाता है । --- कषायोंका समन उपराग (रागद्वेषादिविकार) रहित उपयोग होनेसे होता है। ई-बहुत बार निष्कम्प उपयोग रखनेके अभ्यासके बलसे श्रमण तपोधिक (बड़ा तप - - -

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