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प्रवचनसार सप्तदशांगी टीका
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अथ श्रामण्येनाधिकस्य होनं सममिवाचरतो विनाशं दर्शयति--
अधिगगुणा सामण्यो वट्टांति गुणाधरेहिं किरियासु । जदि ते मिच्छवजुत्ता हवंति पभट्टचारित्ता ॥२६७॥
श्रामण्यमें गुरणाधिक, गुरणहीनोंकी क्रियादिमें बते ।
तो मिथ्योपयुक्त हो, चारितसे भ्रष्ट हो जाते ॥२६७।। अधिकगुणाः श्रामण्ये वर्तन्ते गुणाधरैः क्रियासु । यदि ते मिथ्योपयुक्ता भवन्ति प्रभ्रष्टचारित्रा: ।। २६७ ।।
स्वयमधिकगुणा गुणाधरः परः सह क्रियानु वर्तमाना मोहादसम्यगुपयुक्तत्वाच्चारित्रा. नामसंज्ञ-अधिगगुण सामण्ण गुणाधर किरिया जादि त मिल्छुव जुत्त पउभट्टचारित्त । धातुसंज्ञ- वत्त वर्तने, हब सत्तायां । प्रातिपदिक-अधिकगुण श्रामण्य गुणाधर क्रिया यदि तत् मिथ्योपयुक्त प्रभ्रष्टचारित्र। मूलधातु-वृतु बर्तने, भू सत्तायां । उभयपदविवरण-अधिगगुणा अधिकगुणाः ते मिच्छुवजुत्ता मिथ्योपयुक्ताः पन्भट्टाचारिता प्रभ्रष्टचारित्रा:--प्रथमा बहुवचन । बट्टति वर्तन्ते हवंति भवन्ति-वर्तमान अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । सामण्यो श्रामण्ये-सप्तमी बहुवचन । म णाधरेहिं ग णाधरैः-तृतीया बहुद्धता व बद्धता चलती रहती है।
दृष्टि---- १- अशुद्धभावनापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकन य (२४स) ।
प्रयोग-प्रात्मविशुद्धिहेतु गुणाधिक श्रमणोंसे अपनी विनय भक्ति कराने की चाह न करना और गुणाधिक पुरुषोंमें प्रमोदभाव रखकर उनका सन्मान करना ॥२६६॥
अब अपनेसे हीन श्रमणके प्रति समान जैसा आचरण करने वाले श्रामण्याधिकका बिनाश बतलाते हैं----[यदि श्रामण्ये अधिकगुणाः] जो श्रामण्यमें अधिक गुरण वाले श्रमण [गुणाधरः] होन गुण वालोंके प्रति [क्रियासु] वंदनादि क्रियानोंमें [वर्तन्ते] वर्तते हैं, [ते] तो वे [मिथ्योपयुक्ताः] मिथ्या उपयुक्त होते हुये [प्रभृष्टचारित्राः भवन्ति भृष्टचारित्री हो जाते हैं।
तात्पर्य-निर्दोष गुणाधिक श्रमरण यदि होन श्रमणोंको भक्ति वन्दना करें तो स्वयं का पतन कर लेते हैं।
टोकार्थ--- स्वयं अधिक गुण वाले श्रमण अन्य हीन गुणवाले श्रमशोंके प्रति वंदनादि कियानों में वर्तते हुये मोहके कारण असम्यक् उपयुक्त होनेके कारण चारित्रसे भ्रष्ट हो जाते
प्रसङ्गविवरण----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि जो श्रमरण अपनेसे अधिक गण बाले श्रमणसे अपनी विनयभक्ति कराना चाहता है वह अनन्तसंसारी तक हो जाता है। अब इस गाथामें बताया गया है कि जो श्रामण्यमें अधिक गुण वाला है वह यदि होनाचरणी