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सहजानदशास्त्रमालाया अथ सत्संग विधेयत्वेन दर्शयति
तम्हा समं गुणादो समणो समणं गुणेहिं वा अहियं । अधिवसदु तम्हि णिच्चं इच्छदि जदि दुक्खपरिमोक्खं ॥२७॥ सो गुरासम व गुणाधिक श्रमणोंके निकट बसो संग करो।
यदि प्रसार सांसारिक, दुःखोंसे मुक्ति चाहो तो ।। २७० ॥ तस्मात्सम गुणात् श्रमण: श्रमणं गणैर्वाधिकम् । अधिवसतु तस्मिन् नित्य इच्छति यदि दुःखपरिमोक्षम् ।।
यतः परिणामस्वभावत्वेनात्मन। सप्ताचिःसंगतं तोयमिवावश्यंभाविविकारत्वाल्लौकि कसंगात्संयतोऽप्यसंयत एव स्यात् । ततो दुःखमोक्षार्थिना गुणः समोऽधिको वा श्रमणः श्रमणेन ___ नामसंज-त सम गण समण समण गण वा अहिय त णिच्चं जदि दुवखपरिमोक्ख । धातुसंज अधि वस निवासे, इच्छ इच्छायां। प्रातिपदिक-तत्सम गण श्रमण श्रमण गुण या अधिक तत् नित्यं यदि दूःखपरिमोन । मूलधातु-अधि वस निबासे, इषु इच्छायां । उभयपदविवरण तम्हा तस्मात् गग्गादो गणात्पंचमी एक. 1 समं अहियं अधिकं-द्वितीया एक० । समण श्रमण दुरखपरिमोक्खं दुःखपरिमोक्ष-
दिए । तात्पर्य-श्रमणको गुणों में अपने समान या अपने से अधिक वाले श्रमणके सत्संग में रहना चाहिये।
टीकार्थ--चूकि प्रात्मा परिणामस्वभाव वाला होनेसे अग्निके संगमें रहे हुए पानीको तरह लौकिक संगसे विकार अवश्यंभावी होनेसे संयत भी असंयत ही हो जाता है। इस कारण दुःखोंसे छुटकारा चाहने वाले श्रमणको समान गुण वाले श्रमणके साथ अथवा अधिक गुण वाले श्रमणके साथ सदा ही निवास करना चाहिये। उस प्रकार रहनेसे इस धमाके शीतल घरके कोने में रखे हुये शीतल पानीकी भांति समान गुरगवालेकी संगतिसे गुण रक्षा होती है, और अधिक शीतल हिमके संपर्क में रहने वाले शोतल पानीकी भांति अधिक गुण वालेके संगसे गुणवृद्धि होती है । इत्याध्यास्य इत्यादि । प्रर्थ-इस प्रकार शुभोपयोगजनित किसी प्रवृत्तिका सेवन करके यति सम्यक् प्रकारसे संयमको श्रेष्ठतासे क्रमशः परम निवृत्तिको प्राप्त होता हुग्रा; जिसका रम्य उदय समस्त वस्तुसमूहके विस्तारको लोलामात्र से प्राप्त हो जाता है ऐसी शाश्वती ज्ञानानन्दमयी दशाका एकान्ततः अनुभव करो।
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्ण गायामें प्रतिव्य असत्संगमें बताये गये असत्का अर्थात लौकिकजनका लक्षण उपलक्षित किया गया था। अब इस गाथामें सत्संगको विधेयता दिखाई
तथ्यप्रकाश-१- जैसे अग्निकी संगतिसे जल संतप्त हो जाता है, इसी प्रकार लो.