Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 521
________________ पथ मोक्षतस्त्वमुद्घाटयति- प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका प्रजधाचारवित्तो जघत्थपदगि त्रिदो पसंतप्पा | फले चिरं जीवदि इह सो संपुरणसामण्णो ॥ २७२ ॥ निश्चितयथार्थपद अय-थाचार विद्युत प्रशान्तात्मा । ५०७ श्रामण्यपूर्ण श्रात्मा, निष्फल संसार में न चिर रहता ॥ २७२॥ अथथाचारवियुक्तो यथार्थपदनिश्चितः प्रशान्तात्मा । अफले चिरं न जीवति इह स संपूर्ण श्रामण्यः ॥ २७२ यस्त्रिलोक चूलिकायमान निर्मल विवेकदीपिकालोकशालितया यथावस्थित पदार्थनिश्चय नामसंज्ञ - अजधाचार विजुत जदत्थपदणिच्छिद पम्प अफल चिरं ग इह त संपुष्णसामण्ण धातुसंज्ञ-जीव प्राणधारणे । प्रातिपदिक-- अवश्राचारवियुक्त यथार्थपदनिश्चित प्रशान्तात्मन् अफल ऐसे अनन्त काल तक अनन्त भावान्तररूप परावर्तनोसे अनवस्थित वृत्ति वाले रहनेसे, उनको संसारतत्व ही जानना | प्रसङ्गविवरण - श्रनन्तरपूर्व गाथा में सत्संगको बिधेयताका विवरण करते हुए शुभो - पयोग प्रज्ञापनका उपसंहार किया गया था । श्रव प्रकरणसम्मत मोक्षतत्त्व व उसके साधनतत्त्व को प्रकट करनेके स्थल में सर्वप्रथम उसके प्रतिपक्षभूत संसारतत्त्वको एक इस गाथामें उघाड़ डाला है । तथ्यप्रकाश--- ( १ ) श्रमराभासको संसार तस्व ही समझना । (२) संसारतत्त्व वे है जो अनन्तकर्मफल भोगते हुए अनन्तकाल अनन्त भावान्तरपरिवर्तनोंसे अनवस्थित डांवाडोल अस्थिर परिणमन करते रहते हैं । (३) जिन्होंने द्रव्यत: निर्ग्रन्थलिङ्ग धारण करके भी वि चारव्यामोहसे मलीमस मानस होनेके कारण परमार्थं श्रामण्यको प्राप्त नहीं कर पाया वे श्रमाभास हैं । ( ४ ) श्रमगाभास स्वयं ग्रविवेकवश पदार्थोंको अन्यथा समझकर तत्व यही है ऐसा विपरीत निश्चय रचते हुए अपने ऐसे विचारोंमें न्यामुग्ध रहते हैं । (५) संसारतत्त्व से हटकर मोक्षतत्त्व वाला भव्यात्मा आदर्श तत्त्व है । सिद्धान्त -- (१) संसारतत्त्व सोपाधि शुद्ध तत्व है । दृष्टि - १ - उपाधि सापेक्ष नित्य अशुद्ध पर्यायाधिकनय ( ४० ) | प्रयोग - श्रात्म कल्याण के लिये आत्मकरुणा करके सहजात्मस्वरूपका प्रत्यय करते हुए संसारतत्वको मूलतः उखाड़कर हटा देना ||२७१ ॥ मोक्षतत्वका उद्घाटन करते हैं [अयथाचारवियुक्तः ] अयथाचारसे रहित [ यथार्थपदनिश्चितः ] यथार्थतया पदोंका तथा पदार्थोंका निश्चय वाला [ प्रशान्तात्मा] प्रशान्त

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