Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 517
________________ प्रवचनसार - सप्तदशाङ्गी टीका अथ लौकिक लक्षगमुपलक्षयति- ग्गिंथं पव्वइदो वदृदि जदि एहिगेहि कम्मे हि । सो लोगो भिणिदो संजमतवसंपत्तोवि ॥२६६॥ ५०३ निर्गन्थ प्रवज्यायुत, संयम तप संप्रयुक्त होकर भी । यदि ऐहिक कर्मोंमें, लगता तो वह रहा लौकिक ॥२६६॥ नैर्ग्रन्थ्यं प्रब्रजितो वर्तते यहिकः कर्मभिः । स लौकिक इति भणितः संयमतपः संप्रयुक्तोपि ॥ २६६ ॥ प्रतिज्ञातपरमर्नर्ग्रन्ध्यप्रव्रज्यत्वादुदृढसंयम तपोभारोऽपि मोहबहुलतया श्लथी कृतशुद्धचेतनव्यवहारी मुहुर्मनुष्यव्यवहारेण व्याघूर्णमानत्वादैहिककर्मानिवृत्ती लौकिक इत्युच्यते ||२६|| नामसंज्ञ—णिग्गंथ पव्वइद जदि एहिंग कम्म त लोगिंग सि भणिद संजमतवसंपजुत्त वि । धातुसंज्ञ-बत्त वर्तने, भण कथने । प्रातिपदिकनर्ग्रन्थ्य प्रत्रजित यदि ऐहिक कर्मन् सत् लौकिक इति भणित संयमतपः संप्रयुक्त अपि । मूलधातु - वृतु वर्तने, भण शब्दार्थः । उभयपदविवरण - णिग्गंथ नर्ग्रन्थ्य-द्वितीया एकo | पब्बइदो प्रत्रजित: - प्रथमा एक. हृदन्त । यदि वर्तते वर्त अन्य० एक० क्रिया । जदि यदित्ति इति वि अपि - अव्यय । एहिगेहि ऐहिकैः कम्मेहिं कर्मभि: - तृतीया बहुवचन । सो सः लोगिगो लौकिकः भणिदो भणित: प्रथमा एक० कृदन्त किया। संजमतयसंपजुत्तो संयमतपः संप्रयुक्तः - प्रथमा एकवचन निरुक्ति- ग्रन्थते इति ग्रन्थः ग्रन्थिः (ग्रन्थ + वितन् ) ग्रन्थ बन्धने चुरादि । समास- संयमश्च तपश्चेयि सीताभ्यां संप्रयुक्तः संयमतापसंयुक्त: ॥२६॥ बार बार मैं मनुष्य हूं इस वासना के चक्र में पड़ गया हो तो वह लोकिक कर्मको नहीं छोड़ सकता । ( ३ ) जब अनि अपने में मनुष्यरूपकी प्रास्या है तब मनुष्य जैसा ही विषय कषायों के कर्म में वह उपयोग लगावेगा । ( ४ ) ऐसे लौकिक जनोंका संसर्ग शासनस्थ सुमार्गभागी श्रमण नहीं करते । (५) लौकिकजनसंसर्ग से भ्रमण भी सविकार हो जायेंगे । सिद्धान्त - ( १ ) ऐहिक कर्मभावों में रत साधु लौकिक प्राणी है । दृष्टि - १ - अशुद्ध निश्चयनय (४७), प्रशुद्धभावनापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय ( २४स ), विभावगुरणव्यञ्जन पर्यायदृष्टि (२१३) । प्रयोग - प्रात्मकल्याणके लिये सहजात्मस्वरूपकी भावना करके ऐहिक कर्मोसे निवृत्ति पाकर अलौकिक ग्रानन्द अनुभवना || २६६॥ ra सत्संगको विधेयरूपसे दिखलाते हैं [तस्मात् ] लौकिकजनके संगसे संयत भी असंयत हो जानेके कारण [ यदि ] यदि [ श्रमणः ] श्रमण [दुःखपरिमोक्षम् इच्छति ] दुःखसे छुटकारा चाहता है तो वह [गुणात्समं ] गुणसे अपने समान [वा ] अथवा [ गुणैः श्रधिकं - श्रमणं तस्मिन्] गुलोंसे अपने से अधिक वाले श्रम के संग [नित्यम् ] सदा [ अधिवसतु ] रहे |

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