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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
४६७ च्चारित्रं नश्यति ॥२६॥ समणं श्रमणं-द्वितीया एक० 1 दिट्ठा दृष्ट्वा-सम्बन्धार्थप्रक्रिया । पदोसदो प्रद्रेषत:-पंचम्यर्थे अव्यय । जो यः सोसाद चारित्तो नष्ट चारित्र:-प्र० एका किरियासू क्रियास-स०बहअणमण्णादि अनुमन्यते हवदि भवति-वर्त० अन्य ० एक क्रिया । हि ण न--अव्यय । निरुक्ति-चरणं चारित्रं (चर् + इ च्) चर गती । समास-नाष्ट: चारिणः यस्य सः न०, शासने तिष्ठतीति शासनस्थः, तं शासनस्थं ।।२६५।। वाला ही हो जाता है।
तात्पर्य- जो श्रमण शासनस्थ अन्य श्रमणको न माने बुरा कहे उसका चारित्र नष्ट समझना।
टीकार्थ-द्वेषके कारण शासनस्थ श्रमणका भी अपवाद' करने वालेका और उसके प्रति सत्कारादि क्रियायें करनेमें अननुमत श्रमणका द्वेषसे कषायित होनेसे चारित्र नष्ट हो जाता है।
प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि श्रमणाभास कैसा होता है । अब इस गाथामें यह बताया गया है कि जो श्रामण्यसे समान है उस श्रमणका प्रादर न करनेवालेके श्रामण्यका विनाश हो जाता है।
. तथ्यप्रकाश-१ -- जो श्रमण शासनमें स्थित है यथार्थ भ्रमण है उसका यदि कोई द्वेषसे अपवाद करे प्रादर न करे तो उसका चारित्र (श्रामण्य) नष्ट हो जाता है । २-- जब किसी श्रमणके अन्य श्रमशके प्रति द्वेष ईा आदिक कषाय जग गये तो वहीं चारित्र नहीं
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सिद्धान्त----(१) अशुद्ध भावनासे प्रशुद्धता व बद्धता चलती रहती है। दृष्टि -१-अशुद्धभावनापेक्ष अशुद्ध द्रध्याथिकनय (२४ स)।
प्रयोग--- अात्मविशुद्धिके हेतु व स्वचारित्ररक्षाहेतु शासनस्थ सुमार्गभागी धमाके प्रति द्वेष न करना, ईर्ष्या न करना, अपवाद न करना, किन्तु विनय करना सेवा करना ॥२६५।।
अब श्रामण्यसे अधिक श्रमणके प्रति हीनकी तरह आचरण करने वालेका विनाश बतलाते हैं---[यः] जो श्रमण [यदि गुणाधरः भवन्] यदि गुणोंमें होन होता हुआ भी
अपि श्रमरणः भवामि] 'मैं भी श्रमण हूं' [इति] ऐसा गर्व करके [गुरणतः अधिकस्य] गुणों में अधिक बाले श्रमण पाससे [विनयं प्रत्येषकः] विनय करवाना चाहता है [सः] तो वह मिनत्तसंसारी भवति] अनन्तसंसारी होता है।
___ तात्पर्य-गुणहीन श्रमण यदि गुरणाधिक श्रमणसे अपना विनय करवाना चाहता है तो वह अनन्तसंसारी होता है ।