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सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ श्रामण्येन सममननुमन्यमानस्य विनाशं दर्शयति
अववददि सासणत्थं समणं दिट्टा पदोसदो जो हि। किरियासु णाणुमण्णदि हवदि हि सो णट्ठचारित्तो ॥२६५॥ मार्गस्थ श्रमरणको लखि, जो कुछ अपवाद द्वषवश करता।
अनुमोदे न विनयसे, वह मुनि है नष्टचारित्री ॥ २६५ ॥ अपवदति शासनस्थं श्रमणं दृष्ट्वा प्रद्वेषतो यो हि । क्रियासु नानुमन्यते भवति हि स नष्टचारित्रः ।।२६५।।
श्रमणं शासनस्थमपि प्रद्वेषादपवदतः क्रियास्वननुमन्यमानस्य च प्रद्वेषकषायितत्वा.
नामसंज्ञ-सासणत्थ समण पदोसदो ज हि किरिया ण हि त णट्ट चारित्त । धातुसंज्ञ-दंस दर्शने, अनु मन्न अवबोधने, हव सत्तायां । प्रातिपदिक- शासनस्थ श्रमण प्रद्वेषतः यत् हि क्रिया न हि तत् नष्ट चारित्र । मूलधातु-दृशिर् प्रेक्षणे, अनु मनु अवबोधने, भू सत्तायां । उभयपदविवरण-सासणत्थं शासनस्थं नादिक प्रवृत्तियां विधेय हैं, श्रमणाभासोंके प्रति नहीं। अब इस गाथामें श्रमणाभास कैसा पुरुष होता है यह बताया गया है।
तथ्यप्रकाश--(१) आगमज्ञानी द्रव्यसंयमी तपस्वी होनेपर भी यदि कोई साधक अन्तस्तत्त्वकी श्रद्धा नहीं कर रहा तो वह श्रमणाभास होता है । (२) जो अन्तस्तत्त्वकी श्रद्धा करता है वह जिनोदित समस्त पदार्थोंकी यथार्थतया श्रद्धा करता है। (३) वस्तुत: श्रद्ध्येय आत्मा ही प्रधान होता है, क्योंकि उस श्रद्धानीने जिनोदित अनन्तार्थनिर्भर विश्वको स्व प्रात्माके द्वारा ज्ञेयरूपसे पी लिया है ऐसे प्रात्माका श्रद्धान किया है ।
सिद्धान्त-- १- वास्तवमें ज्ञानीने अपने आपका ज्ञान श्रद्धान किया है । (२) ज्ञानी को उपचारसे परपदार्थका ज्ञाता श्रद्दधाता कहा जाता है ।
दृष्टि-१- निश्चयनय (१६६), उपादान दृष्टि (४६ब) । २- 'स्वाभाविक उपचरित स्वभावव्यवहार (१०५), अपरिपूर्ण उपचरित स्वभावव्यवहार (१०५अ)।
प्रयोग--चूंकि अन्तस्तत्त्वके श्रद्धान विना प्रात्मोद्धार नहीं है, अतः आगमज्ञान संयम तपश्चरणका पौरुष करते हुए प्रात्म प्रधान समस्त पदार्थोंका यथार्थ श्रद्धान बनाये रहना ॥२६४॥
अब जो श्रामण्यसे समान हैं उनका आदर न करने वालेका विनाश दिखलाते हैं - [यः हि] जो [शासनस्थं श्रमणं] जिनदेवके शासन में स्थित श्रमणको [दृष्ट्वा] देखकर [प्रद्वषतः] द्वेषसे [अपवदति] उसका अपवाद करता है, और [क्रियासु न अनुमन्यते] सत्कारादि क्रियाओंके करनेमें प्रसन्न नहीं है [सः नष्टचारित्रा हि भवति ] वह नष्टचारित्र