Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 508
________________ Ent सहजानन्दशास्त्रमालायां ४६४ श्रथ श्रमराभासेषु सर्वाः प्रवृत्ती प्रतिषेधयति मुट्ठेया समणा सुत्तत्थविसारदा उवासेया । संजमवणाड्ढा परिणवदणीया हि समोहिं ॥ २६३ ॥ विदितार्थ सूत्रसंयत, ज्ञानी तपमुक्त श्रमण संतोंके । श्रभ्युत्थान उपासन, प्रणमन कर श्रमरण भक्त रहें ।। २६३ ॥ अभ्युत्थेयाः श्रमणाः शुत्रार्थविशारदा उपासेयाः । संयमतपोज्ञानादयाः प्रणिपतनीया हि श्रमणेः ॥ २६३॥ सूत्रार्थवशारद्यप्रवर्तितसंयमतपःस्वतस्वज्ञानानामेव श्रमणानामभ्युत्थानादिकाः प्रवृतयोऽप्रतिषिद्धा इतरेषां तु श्रमखाभासाची ताः प्रतिषिद्धा एव ॥ २६३ ॥ नामसंज्ञ---अवटुय समण सुत्तत्यविसारद उवासेय संजमतवणाण पणिवदणीय हि समण धातुसंज्ञ-अभि उत् ट्ठा गतिनिवृत्तौ पण गड पतने । प्रातिपदिक-अभ्युत्थेय श्रमण सूत्रार्थविशारद उपासेय संयमतपोज्ञानादच प्रतिपतनीय हि श्रमण । मूलधातु-अभि उत् ष्ठा गतिनिवृत्ती, प्रनिपत पतने । जमयपदविवरण - अया अभ्युत्थेयाः उवासेवा उपासेयाः पणिवदणीया प्रनिपतनीया:- प्र० ब० कृ० क्रिया । समणाः श्रमणाः सुतत्थविसारदा सुत्रार्थविशारदाः संजमतवणाणड्ढा संयमतपोज्ञानाढचाः - प्रथमा बहुवचन | हि-अव्यय | समरोहि श्रमणेः तृतीया बहुवचन । निरुक्ति - ( विशाल ज्ञानं ददाति इति विशारदः) ( विशाल दान क लस्य सः) जुदान दाने । समास-संयमः तपः ज्ञान चेति संयमतपोशानानि तः आढद्याः संयमतपोज्ञानादयाः || २६३|| में समृद्ध [श्रमणाः ] भ्रमण [ अभ्युत्थेयाः उपासेयाः प्रणिपतनीयाः ] ग्रभ्युल्यान उपासना और प्रणामसे सस्कृत किये जाने चाहिये | तात्पर्य - श्रमण ज्ञानी संयमी तपस्वी श्रमणोंका सत्कार करे । टीकार्य --- सूत्रोंके और पदार्थोंके विशारदत्व के साथ प्रवर्तित है संयम, तप और स्वसत्वका ज्ञान है जिनके ऐसे श्रमणोके प्रति ही प्रभ्युत्थानादिक प्रवृत्तियाँ निषिद्ध हैं, परन्तु उनके अतिरिक्त अन्य श्रमणाभासों के प्रति वे प्रवृत्तियां निषिद्ध हो हैं । प्रसङ्गविवरण - प्रनन्तरपूर्व गाथा में श्रमण जनोंकी उपासना की प्रवृत्ति विशेषतया दिखाई गई थी । अब इस गाथा में श्रमरणाभासोंके प्रति समस्त प्रवृत्तियों का निषेध किया गया है । तथ्यप्रकाश -- :- सूत्रार्थविशारद संयमतपज्ञानसंयुक्त श्रमणोंके ही प्रति श्रभ्युत्थान श्रादि प्रवृत्तियां विधेष हैं । २- श्रमाभासों के प्रति अभ्युत्थानादिक प्रवृत्तियां निषिद्ध हैं । सिद्धान्त - १ - संयमी तपस्वी तत्त्वज्ञानी श्रमण ही विनय भावके श्राश्रयभूत अविपरीत पात्र हैं ।

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