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सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथ शुभपयोगिनामेवंविधाः प्रवृत्तयो भवन्तीति प्रतिपादयतिदंसणगावदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं चरिया हि सरागाणं जिदिपूजोवदेसो य ॥ २४८ ॥ दर्शनज्ञान सुदेशन, शिष्य ग्रहण शिष्य आत्मपोषण भी । जिनपूजोपदेश सब, चर्या हि सराग श्रमरणोंकी ॥ २४८ ॥
ज्ञानोपदेशः शिष्यग्रहणं च पोषणं तेषाम् । चर्या हि सरोगाणां जिनेन्द्रपूजोपदेशश्च ॥ २४८ ॥ अनुजिघृक्षपूर्वक दर्शनज्ञानोपदेशप्रवृत्तिः शिष्यसंग्रह प्रवृत्तिस्तत्पोषण प्रवृत्तिजिनेन्द्रपूजो
नामसंज्ञदतणणावदेस सिस्सग्गहण च पोसण त चरिया हि सरागजिदिपूजोवदेस य धातु संग्रह । प्रातिपदिक-दर्शनज्ञानोपदेव विध्यग्रहण व पोषण तत् चर्यां हि सराग जिजोप्रदेश य । मूलधातु - ग्रह उपादाने । उभयपद विवरण- दंसणणावदेखो दर्शनज्ञानोपदेशः सिस्ससह पोसणं पण चरिया चर्या जिणिदपूजोवदेशो जिनेन्द्रपूजोपदेश: प्रथमा एकवचन । तेंसि तेषां श्री प्रवृत्ति करते हैं । (३) श्राचार्यादि कोई श्रमण श्रावे तो उनके सम्मान में उठकर खड़ा होना मभ्युत्थान कहलाता है । ( ४ ) जब प्रचार्यादि श्रमण चलें तो उनके पीछे चलना अनुगमन कहलाता है । (५) विनयभावसहित सम्मानचेष्टावोंको प्रतिपत्ति कहते हैं । (६) भार्यादिश्रमण जब विहार, रोग आदिके कारण थक गये हों तो उनके शरीरको दावना, सेवा करना श्रमापनयन है । (७) शुभोपयोगी श्रमणोंकी ये सब सेवायें दूषक नहीं
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सिद्धान्त - (१) शुभोपयोगी श्रमणोंके शुभ क्रियायें होती हैं।
दृष्टि--- १- क्रियानय (१६३) |
प्रयोग- शुद्धात्मत्वकी रुचिपूर्वक शुद्धात्मवृत्ति वाले श्रमणोंकी वैयावृत्य कर शुभोप योग में शुद्धात्मत्वकी झलक लेते रहना || २४७॥
शुभपयोगियों ही ऐसी प्रवृत्तियां होती हैं, यह प्रतिपादन करते हैं-- [दर्शनज्ञानोपदेशः ] सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका उपदेश [शिष्यग्रहणं ] शिष्योंका ग्रहण, [च] तथा [तेषाम् पोषणं ] उनका पोषण [च] और [जिनेन्द्रपूजोपदेशः ] जिनेन्द्रको पूजाका उपदेश [हि] [बाव में [ सरागाणांचर्या ] सरागियोंकी चर्या है ।
तात्पर्य -- तत्त्व उपदेश करना, दीक्षा देना, पूजोपदेश करना सराग मुनियोंको शुभोपयोगरूप चर्चा है ।
टोकार्थ -- अनुग्रह करनेकी इच्छापूर्वक दर्शनज्ञानके उपदेशकी प्रवृत्ति, शिष्य ग्रहणकी