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प्रवचनसार - सप्तदशाङ्गी टीका
अथ प्रवृत्त: संयमविरोधित्वं प्रतिषेधयति -
जदि कुदि कायखेदं वेज्जावत्थमुज्जदो समणो । हवदि वदि गरी धम्मो सो सावयाणं से ॥ २५० ॥
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जो संयम नहीं रखता, वैयावृत्यार्थ उद्यमी साधू 1
वह न श्रम किन्तु गृहो, यह तो है धर्म श्रावकका ॥ २५० ॥
यदि करोति कायवे वैयावृत्त्यर्थमुद्यतः श्रमणः । न भवति भवत्यगारी धर्मः स श्रावकाणां स्यात् ॥ २५० ॥ यो हि परंपो शुद्धात्मवृत्तित्राणाभिप्रायेण वैयावृत्यप्रवृस्या स्वस्य संयमं विराधयति स
निवृत्त है ।
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नामसंज्ञ – जदि कायद वेज्जावच्चत्थं उज्जद समण ण अणारि धम्म त सावय । धातुसंज्ञ-हव सत्तायां, अस सत्तायां । प्रातिपदिक-यदि कायखेद वैयावृत्त्यायं उच्चत श्रमण न अगारिन् धर्म तत् श्रावक | मूलयातु-भू सत्तायां, अम सत्तायां । उभयपदविवरण-जदि यदि बेज्जावत्थं वैयावृत्त्यार्थ पन-अवयव । काय खेद - द्वितीया एक उज्जद उद्यतः समणी श्रमणः बगारी धम्मो धर्मः सो सः प्रथमा एक० । हवदि
रागरहित है ।
सिद्धान्त - - (१) शृद्धोपयोगी सहजशुद्ध प्रन्तस्तत्व में उपयुक्त होनेसे सर्वप्रवृत्तियों से
दृष्टि - १- ज्ञाननय ( १६४ ) 1
प्रयोग - शुद्धात्मत्वको विपूर्वक शुद्धात्मत्व के साधक गुरु जनों की सेवा ग्रहिसापद्धति से करना ॥२४३॥
प्रवृत्ति संयमविरोधित्वका निषेध करते हैं - [ वैयावृत्यर्थम् उद्यतः [ वैयावृत्ति के लिये उद्यमी श्रम [ यदि ] यदि [ कायखेदं ] छह कायके खेदको घातको [ करोति ] करता है तो वह [श्रमणः न भवति ] श्रमण नहीं है, [ श्रधारी भवति ] गृहस्थ है; (क्योंकि) [ सः ] छहकायको विराधना सहित वैयावृत्ति [ श्रावकारणां धर्मः स्यात् ] श्रावकों का धर्म है । तात्पर्य -- यदि कोई श्रमण छकायको विराधना न टालकर वैयावृत्य करता है तो वह श्रमण नहीं रहता ।
टीकार्य - जो ( श्रमण ) दूसरे के शुद्धात्मपरिणतिको रक्षा हो, इस अभिप्रायसे वैयावृत्यको प्रवृत्ति द्वारा अपने संयमको विराधना करता है, वह गृहस्थधर्म में प्रवेश कर रहा होने से श्रामण्यसे च्युत होता है । श्रतः जो भी प्रवृत्ति हो वह सर्वथा संयमके साथ विरोध न आये इस प्रकार ही करनी चाहिये, क्योंकि प्रवृत्तिमें भी संयम ही साव्य है ।
प्रसङ्गविवरण - श्रनन्तरपूर्व गाथा में सारी हो ये प्रवृत्तियाँ शुभोपयोगियोंके ही