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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
jages शुभपयोगस्य गौरमुख्यविभागं दर्शयति-एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । नरिया परेति भणिदाताएव परं लहदि सोक्खं ॥ २५४ ॥
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यह शुभ चर्या श्रमरणों, गृहियोंके गौरा मुख्यरूप कहो ।
उससे हि परम्परया, पुरुष परम सौख्यको पाते ॥ २५४ ॥
"एषा प्रशस्तता श्रमणानां वा पुनर्गृहस्थानाम् । चर्या परेति भणिता तयैव परं लभते सौख्यम् ॥२५४॥ एवमेष शुद्धात्मानुपयोगिप्रशस्तचर्यारूप उपवतिः शुभोपयोगः तदयं शुद्धात्मप्रका .fantasafetyपेषां कषायक सद्भावात्मानः शुद्धात्मवृत्तिविरुद्ध रागसंगतत्वाद्सोः
नामसंज्ञ -एन सत्यभूद समण वा पुणो घरत्य चरिया परा ति भणिदा त एव पर सोक्ख । धातुसंज्ञ-भाग करने लभ प्राप्त प्रातिपदिक- एतत् प्रशस्तभूत श्रमण वा पुनर् गृहस्थ चर्या परा इति भणिततत् एवं घर सोक्य मूलधातु- भग शब्दार्थः, डुलभ प्राप्तौ । उभयपद विवरण- एसा एया पसत्यभूदा प्रशस्त भूता चरिया वर्या परा -प्रथमा एक समणानां श्रमणानां वरत्थाणं गृहस्थानां
प्रयोग -- शुद्धात्मवृत्तिको पाने वाले रोगादिसे वश्यक होते ates जनों ने भी संभाव होकर ही करना ||२५३॥
प्राक्रान्त श्रमणोंकी वैयावृत्तिके लिये करना, किन्तु वह भी शुद्ध व शुभोपयुक्त
अब इस प्रकार से कहे गये शुभोपयोगका गोरा- मुख्य विभाग दिखलाते हैं - [ एषा ] यह [प्रशस्तता] प्रशस्तभूत [चर्या] चर्या [श्रमानां] श्रमणोके होती है [वा गृहस्थानां पुनः] और गृहस्योंके तो [परा ] मुख्य होती है, [इति मरिता ] ऐसा श्रागम में कहा है; [ता एवं ] उससे [परं सौख्यं लभते ] साधक परम्परया परमसख्यको प्राप्त होता है । तात्पर्य -- शुभोपयोगसम्बन्धित चर्यासे परम्परया परमसौख्य प्राप्त होता है ।
टीकार्य - इस प्रकार शुद्धात्मानुरागयुक्त प्रशस्त चर्यारूप यह शुभोपयोग वर्णित किया गया है सो शुद्धात्मा प्रकाशक सर्वविरतिको प्राप्त श्रमणोंके कषायकरणके सद्भाव के कारण प्रतित होता हुआ यह शुभोपयोग शुद्धात्मपरिणति विरुद्ध रागके साथ संगत होनेसे गौण होता है, किन्तु गृहस्योंके तो सर्वविरतिके प्रभाव से शुद्धात्मप्रकाशनका प्रभाव होनेसे कषायके सद्भाव के कारण प्रवर्तमान होता हुआ भी, ईंधनको स्फटिकके संपर्क से सूर्यके तेजके अनुभवको तर गृहस्थको रागके संयोग से शुद्धात्माका अनुनय होनेके कारण और क्रमशः परम निर्वाणसोका कारण होने से यह शुभोपयोग मुख्य होता है।
प्रसंगविवरण -- अनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया था कि शुभोपयोगी श्रमण शुद्धात्म