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प्रवचनसार सप्तदशांगी-टीका
४५५ तेषु व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरतत्वप्रणिहितस्य शुभोपयोगस्थापुनर्भावशून्यकेवलपुण्यापसदप्राप्तिः फलपरीत्यं तत्सुदेवमनुजत्वम् ।। २५६।।। मूलधातु-झुलभः प्राप्ती । उभयपदविवरण- छद्मविहिदवत्थुमु छमस्थविहितवस्तुषु सप्तमी बहु० । वणियममाणदाणरदो अनमियमाध्ययनदानरत:--प्रथमा एकवचन । ण न-अव्यय । लहदि लभते वर्त. अन्य एक किया। अपुणभावं अपुनर्भावं भावं साद रातात्मक-द्वितीया एक० । निरुक्ति छन्दयनं इति छपा तत्र तिष्ठतीति छमस्थः छदि संवरणे चुरादि, बसति सत्त्वं यत्र तद् बस्तु (वस + तुन्) बस निवासे । समास-अतं च नियमच अध्ययनं च ध्यानं च दानं चेति व्रतनियमाध्ययनध्यान दानामि तेष रतः इति ब्रत ॥२५६।। कारण हैं । (२) अविपरीत प्राश्रयसे हुए शुभोपयोगका फल पुण्योपचयपूर्वक मोक्षलाभ है । (३) छमस्य प्रज्ञानी जनों द्वारा स्थापित कल्पित सराग देव आदि तत्त्व शुभोपयोगके विपरीत प्राश्रयभूत कारण हैं । (४) विपरीत कारणों में किये गये दान ध्यान अध्ययनादिरूप शुभोप: योगका फल मात्र मोक्षलाभशून्य पुण्यापदकी प्राप्ति है ।
सिद्धान्त-(१) सराग जीवको बीतरागके लिये प्रयुक्त होने वाले देव शब्दसे कहना उपचार है।
दृष्टि---१-- एकजातिपर्याये अन्यजातिपर्यायोपचारक असद्भूत व्यवहार (१०७) ।
प्रयोग-सत्य असत्य तत्त्वका विवेक करके प्रसत्यका प्राश्रय छोड़कर सत्य के प्राश्रय से उपयोगका प्रवर्तन करना ।।२५६।।
___ अब पुनः कारण विपरीतता और फलविपरीतता ही बतलाते हैं- [प्रविदितपरमार्थेषु] नहीं आना है परमार्थको जिन्होंने ऐसे [च] और [विषयकषायाधिकेषु] विषय-कषाय में अधिक [पुरुषेषु] पुरुषोंके प्रति [जुष्टं कृतं या दत्त] सेवा, उपकार अथवा दान [कुदेवेषु मनुजेषु] कुदेवरूपमें और कुमनुष्यरूपमें [फलति] फलता है।
तात्पर्य-विषयकषायवान पुरुषोंमें किया हुआ दान आदिका फल कुदेव व कुनर होना है।
टोकार्थ-जो छमस्थस्थापित वस्तुयें कारणनैपरीत्य हैं; वे वास्तव में शुद्धात्मज्ञानसे शून्यताके कारण नहीं जाना है और शुद्धात्मपरिणतिको प्राप्त न करनेसे 'विषयकषायमें अधिक ऐसे पुरुष हैं । उनके प्रति सेवा, उपकार या दान करने वाले शुभोपयोगात्मक जीवों को जो केवल पुण्यापसदकी प्राप्ति है सो वह फलविपरीतता है; वह (फल) कुदेवत्व व कुमनुध्यत्व है।
प्रसंगविवरण-~~-अनन्तरपूर्व गाथामें शुभोपयोगके विपरीत कारण व विपरीत फलको
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