Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 503
________________ प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका ४८६ पद्यपरिणतिनिवृत्तकाग्र्धात्मकसुमार्गभागी स श्रमशः स्वयं मोक्षपुण्यायतनत्वादन्त्रिप रोत्तफलकारणं कारणामविपरीत प्रत्येयम् ।।२५६।। मूलधातु-भू सत्ताचा । उभयपदविधरण ....उच रददाबो उपरतपाय: पुरखो पुरुषः समभावों समभायः गुणसमिदिदोवसेवी गुलमितितोपसेवी रा सः भागी-प्रयमा एकः । (म्मगेस धामिकर सब्स सर्वेषु-सप्तमी बहु । समगर ससुमार्गस्य–विष्ठी एक ० । हदि भात-वर्तमान अन्य एक० किया । निरुक्ति-मार्यते किचित् यत्र सः मार्ग: (मार्ग-+छन् ) मार्ग अन्वेषणे चुरादि । समास-उपरतं पापं यस्य सः उपरतपापः) ॥२५६।। टोका- पापके रुक जानेसे, सर्वधमियोंके प्रति मध्यस्थ होनेसे और गुणसमूहका सेवन करनेसे जो सभ्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी युगपत्तारू, परिणतिसे रचित एकाग्र नास्वरूप सुमार्गका भागी (सुमार्गशाली-सुमार्गका भोजन) है वह श्रभा निजको और परको मोक्षका मोर पुपयका प्रायतन होने से अविपरीत फलका कारणभूत 'अविपरीत कारण' है, ऐसा सम. झना चाहिये। प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्ण गाथामें बताया गया था कि कारणको विपरीततासे फल अविपरीत सिद्ध नहीं होता । अब इस गाथामें प्रविपरीत फलका कारणभूत अविपरीत कारण (प्राश्रयभूत कारण) दिखाया गया है। तथ्यप्रकाश--(१) एक अन्तस्तत्त्वको धुन वाला श्रमण पाराध्य अविपरीत कारण (प्राश्रयभूत कारण) है, क्योंकि वह मोक्ष और पुण्यका आयतन है । (२) श्रमणोंके एक परमार्थ सहजास्मस्वरूप हो अग्न रहता है इसका कारण है सम्यग्दर्शन सम्यम्जान सम्यक्चारित्र का योगपद्यपरिणमन । (३) रत्नत्रयभाव गुरगपुछ प्रात्मतत्य की उपासनासे विकसित होता है। (४) साम्यभाव होनेपर गुणपुञ्ज प्रारमतत्वको अराधना बनती है। (५) निष्पाप होनेपर साम्यभाव प्रकट होता है । (६) श्रमण निष्पाप साम्य पुञ्ज अन्तस्तत्त्वोपासक होने से सुमार्गभागी हैं प्रतएव अविपरीत कारण हैं । (७) मोक्षके अविपरीत कारणको उपासनासे मोक्षमार्गरूप अविपरोत फल प्राप्त होता है। सिद्धान्त-(१) शुद्धतत्वको भावनासे शुद्धता प्रकट होती है। दृष्टि -१- शुद्ध भावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब)। प्रयोग--मोक्षपात्र बननेके लिये निष्पाप निष्पक्ष अन्तस्तत्वोपासक होकर सुमार्गभागी होनेका पौरुष होने देना ॥२५६|| अब प्रावपरीत फलके कारणभूत 'प्रविपरीत कारण' को विशेषतया प्रतिपादित करते है--[अशुमोपयोगरहिताः] अशुभोपयोगरहित [शुद्धोपयुक्ताः] शुद्धोपयुक्त वा] अथवा .................... mmsdeysis JANASIRE D

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