Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 500
________________ सहजानन्दशास्त्रमालायां ४८६ अथ कारण परोत्यफलवैपरीत्ये एव व्याख्याति - यविदिदपरमत्थेसु य विसयकसायाधिगे पुरिसेसु । जुद्ध कदं व दत्तं फलदि कुदेवे मणुवे ॥ २५७॥ अविदित परमार्थों में, विषयक वायव्याकुलित पुरुषोंमें । कृत दान प्रीति सेवा कुदेवमनुजीय फल देतो ॥२५७॥ अविदितपस्पार्थेषु च विपकषायाधिकेषु पुरुषेषु । जुष्टं कृतं वा दत्तं फलति कुदेवेषु मनुजेषु ॥ २४७ ॥ यानि हि छद्मस्थव्यवस्थापितवस्तूनि कारणवैपरीत्यं ते खलु शुद्धात्मपरिज्ञानशून्यतयानवाप्तशुद्धात्मवृत्तितया चाविदितपरमार्था विषयकषायाधिकाः पुरुषाः तेषु शुभोपयोगात्म कानां जुष्टोपकृतदान या केवलपुण्यापसदप्राप्तिः फलवैपरीत्यं तत्कुदेवमनुजत्यम् ।। २५७।। नाम - अविदिपरमत्थ य विसयकसायाधिग पुरिस जुटु कद व दत्त कुदेव मणुव । धातुसंज्ञफल विपाके । प्रातिपदिक - अविदितपरमार्थ च विषयकषायाधिक पुरुष जुष्ट कृत वा दत्त कुदेव मव । मूलभातु-फल विपाके । उभयपद विवरण- अविदिदपरमत्थेसु अविदितपरमार्थेषु विसयकसायाधिगेस विषयकषायाधिकेषु पुरिसेसु पुरुषेषु कुदेबेसु कुदेवेषु मस्णुवेसु भन्नुजेषु सप्तमी बहु० । जुटं कृतं दत्तं - प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया । फलदि फलति व अन्य एक क्रिया । निरुक्ति- पुरति अग्रे गच्छति इति पुरुष: पुर अग्रगमने ( पुर् + कुपण्) । समास - विषयाश्च कषायाश्च विपयकषायः तेषु अधिका: faresपायाधिकाः तेषु विषयकषायाधिकेषु ॥ २५७ ।। दिखाया गया था । श्रव इस गाथामें विशेष विपरीत कारण व विपरीत फलका व्याख्यान किया गया है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) जो विषयकषायमें अधिक पुरुष हैं फिर भी विचित्र वेशादिके कारण उनमें देवत्व गुरुत्वकी कल्पना बने तो वे विपरीत पात्र हैं, विपरीत कारण हैं । ( २ ) विपरीत कारणोंमें परमार्थको अनभिज्ञता होनेसे विषयकषायाविकला हुई है । (३) विपरीत कारण शुद्धात्मपरिज्ञानशून्य होनेसे शुद्धात्मवृत्तिको प्राप्त न कर सके अतः ज्ञानो है । ( ४ ) उन विपरीत कारणोंके प्रति सेवा उपकार व दान करनेकं शुभोपयोग वालोंको मोक्षमार्गशून्य मात्र हीन पुण्यकी प्राप्ति हो जाती है जिससे खोटे देव मनुष्यों में जन्म हो जायगा । ( ५ ) विपरीत कारणोंकी सेवामें विपरीत फल ही प्राप्त होता है । ( ६ ) कुदेव कुगुरुकी सेवा वास्तव में शुभोपयोग नहीं है, किन्तु कल्पित धर्मभावनारूप मंद कषायसे वह शुभोपयोग कहा जाता है । सिद्धान्त - ( १ ) विपरीत कारणोके लगाव में मोहो विपरीत फल पाता है । दृष्टि - १ - उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याधिकनय (२४) ।

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