Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 497
________________ ४८३ DBSKIRADESRO % 3 प्रवचनसार-सप्तदशांगो टीका अथ शुभोपयोगस्य कारणबपरीत्यात् फलवपरीत्यं साधयति .... रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेमेण फलदि विवरीदं । सागा मिगदागिह बीजाणिव सम्मकालम्हि ॥२५५।। शुभ राग पात्रको कुछ, विरुद्धतासे विरुद्ध फल देता। बीज कुभूगत फलता, उल्टा फलकालमें जैसे ॥२५॥ रागः प्रशस्तभूतो कबिशेषेण फलति विपरौलम् । वाताभूमिगतानोह बीजानिव सस्यकाले ।। २५५ ।। __ यर्थ केषामपि बीजानां भूमिवैपरोत्यान्निध्पत्तिनैपरीत्यं तथैकस्यापि प्रशस्तरामलक्षणस्य शुभोपयोगस्य पात्र परोत्यास्फलपरीत्यं कारसारिशेषात्कार्यविशेषस्यावश्यंभाधित्वात् ॥२५॥ नामसंज्ञ-राग पसत्यभूद वत्थुविसेस विरोद णामाभूमिगद इह बीज इव सस्सकाल । धातुसंतफल फलने । प्रातिपदिक-राग प्रशस्तभूत वस्तु विशेष दिपरीत मानाभूमिगत बीज सस्यकाल इह इव । मूलधात--फन फलने । उभयपदविवरण-..रागमो रागः पत्थभूदो प्रकारतभूत:-प्रथमा एक पत्यविसेसेण यस्तुविशेषण-तृतीया एक ! फलदि फलति-वर्तमान अन्य एक० क्रिया । बिवरीदं विपरीतक्रियाविशे. षण। णाणाभूमिगदाण्डि नानाभूमिगतानि बीजाति बीजानि-प्रथमा बह । इह इव-अव्यय । सस्यकाल. म्हि सस्थकाले साप्तमी कवचन । निचिन-प्रशम्यतेस्म प्रति प्रशस्तः प्रशंस+क्त) शंस स्तु समास-नानाभूमौ गत्तानि इति नानाभूमिगत्तानि, सस्यस्य काल: सस्यकालः तस्मिन सस्यकाले १६२५५। तात्पर्य - प्रशस्त राग भी कुपात्रगत होने से उल्टा फल देने वाला होता है । टोकार्थ-जैसे एक ही बीजोंका भूमिको विपरीततासे निष्पत्तिका वपरीत्य होता है उसी प्रकार एक ही प्रशस्त रागस्वरूप शुभोपयोगका पात्रको विपरीततासे फलका बैधरीत्य होता है, क्योंकि कारण के भेदसे कार्यका भेद अवश्यम्भावी है। प्रसंगविवरण – अनन्त र पूर्व गायामें गुभोपयोगका गौण मुख्य विभाग दर्शाया गया था। अब इस गाथामें बताया गया है कि शुभोपयोगका प्राश्रयभूत विपरीत कारण होनेपर उसका विपरीत फल होता है। तथ्यप्रकाश---(१) कारणके भेदसे कार्य का भेद अवश्यंभावी है । (२) अच्छो भूमि में डाले गये बीजका अच्छा फल उत्पन्न होता है, किन्तु उसो बोजको तेलो प्रादि खराब भूमि में डाला जाय तो उसका फल खराब होता है यह उत्पन्न हो नहीं होता। (३) प्रशस्तरागरूप शुभोपयोग सर्वज्ञोपदिष्ट सुदेव सद्घर्म व सुगुरुके विषय में हो तो पुण्यसंचयपूर्वक कुछ काल बाद मोक्षकी प्राप्ति होती है। (४) अज्ञानी जनों द्वारा व्यवस्थापित देव धर्म गुरुके विषय में प्रशस्तरागरूप शुभोपयोग हो तो उसका फल विपरीत होगा, मोक्षशून्य पुण्यापदाको प्राप्ति है जिसे उसे अधिक से अधिक यही हो सकता कि मरकर अच्छा मनुष्य बन जाय या देव बन जाय । -MPAN

Loading...

Page Navigation
1 ... 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528